कवि दलीचंद जांगिड सातारा वालों की कलम से: प्रारब्ध का शेष फल
प्रारब्ध का शेष फल
दुख भले ही लाख हों, तो क्या मुस्कुराना छोड़ दूं.....
कंठ से दबी आवाज निकल रही है जरुर, तो क्या कविता गाना छोड़ दूं......
हो सकता है ईश्वर ने भेजा प्रारब्ध का शेष फल भुगत रहा हूं, तो क्या साहित्य समाज प्रगति का लिखना…
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