कवि दलीचंद जांगिड सातारा की कलम से: मन चाही मंझिल अब दूर नहीं…..
मन चाही मंझिल अब दूर नहीं.....
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वो झिलमिल दीपक दिख रहा दूर
वही तेरी मन चाही मंझिल है मेरे भाई
कर्म कर कष्ट दायी कठिन तू पंहुचा
अपनी मन चाही मंझिल के समीप
क्यू बैठा है थक कर मेरे…
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