दीपक आहूजा वालों की कलम से: नाचते मोर
नाचते मोर
सावन तो नहीं है, फिर मन में मोर क्यों नाचते,
मृदंग बजा-बजा कर, दिलों में सुर क्यों साधते।
ऋतु तो है हेमंत की, फिर क्यों स्मृतियाँ गर्म हैं,
शिशिर की प्रतीक्षा में, इस जीवन का मर्म है।
तृष्णा का यह चक्र, हर मनुष्य में वास…
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