ममता शर्मा “जांगिड” पाली: दिखावे का दंश, मिटते वजूद का अंश।।
इंसान एक सामाजिक प्राणी हैं ओर उसे इसी समाज में रह कर अपने जीवन को गुजारना हैं। जिसमें हँसना हैं-रोना हैं, सुख में-दुःख में, हँसी में-खुशी में, मान में-अपमान में, प्यार में-तिस्कार में, भक्ति में-भाव में, अभाव में-प्रभाव में। हर परिस्थिति में साथ चलना हैं।
दिखावे का दंश।
मिटते वजूद का अंश।।
इंसान एक सामाजिक प्राणी हैं ओर उसे इसी समाज में रह कर अपने जीवन को गुजारना हैं। जिसमें हँसना हैं-रोना हैं, सुख में-दुःख में, हँसी में-खुशी में, मान में-अपमान में, प्यार में-तिस्कार में, भक्ति में-भाव में, अभाव में-प्रभाव में। हर परिस्थिति में साथ चलना हैं। फलना हैं-फूलना हैं। लेकिन बढ़ते दिखावे के दंश के कारण अपनी मूल संस्कृति का अंश मिटता जा रहा हैं। वो परम्पराएं लगभग समाप्ति के कगार पर हैं जिन पर कभी हमें गर्व था। बात जीवन के सुरुआत से अंत तक की करते हैं।
सोलह संस्कार
1.गर्भाधान संस्कार
2. पुंसवन संस्कार
3.सीमन्तोन्नयन संस्कार
4.जातकर्म संस्कार
5.नामकरण संस्कार
6.निष्क्रमण संस्कार
7.अन्नप्राशन संस्कार
8.मुंडन/चूडाकर्म संस्कार
9.विद्यारंभ संस्कार
10.कर्णवेध संस्कार
11. यज्ञोपवीत संस्कार
12. वेदारम्भ संस्कार
13. केशान्त संस्कार
14. समावर्तन संस्कार
15. विवाह संस्कार
16.अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार
उपरोक्त सोलह संस्कारों में आधे तो हम भूल चुके हैं। ओर जो बचे हैं, उनमें से मूल भाव ही गायब हो गए या बदल चुके हैं।
सनातन के सोलह संस्कारों में अहंकार के अंश का समावेश हो चुका हैं। कुछ में होड़ ने हड़कम्प मचा रखा हैं। ओर दिखावे के कारण संस्कारों तीज-त्योहारों में विषमताओं के साथ विकृतियों का समावेश हो चुका हैं। जिससे आमजन भृमित हो कर भटक रहा हैं। जाने-अनजाने में हम संस्कारों में समाहित उन विकृतियों का अनुसरण करने को मजबूर हो गए हैं। ये विकृतियां हैं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहीं हैं वो सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जा रहीं हैं। आज जरूरत हैं उस महावीर हनुमान की जो सुरसा के मुँह को बंद कर सके। परन्तु ये विकृतियां लाई किसने हमनें ही न। ओर हम पूर्वजों के नाम का सहारा लेकर उन विकृतियों को ओर हवा देकर बढ़ावा देते हैं। आज जरूरत हैं। आधुनिक समय के साथ संस्कृति का समावेश बिठाने की। जिससे आम जीवन आसान और सामाजिक जीवन स्तर समान हो जाएं। जिसमें किसी को सिर्फ हमारे अभिमान प्रदशन से ठेस न पहुँचे। माना ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया तो क्या हम उसका व्यर्थ दिखावे में हम अपने ही बन्धुओं को नीचा दिखाने में उनमें हीन भावना भरने में, प्रयोग करेंगे? नहीं ये बिलकुल ईश्वर की दृष्टि में गलत हैं। जब ईश्वर ने सब को एक समान बनाया तो फिर कैसा ओर किसलिए ये व्यर्थ का अभिमान।
कुछ प्रथाओं में तो कुप्रथाओं ने घर कर लिया हैं। और कुछ रीतियों में कुरीतियों ने डेरा जमारख हैं। इसलिए सभी समाजसुधारकों लेखक गणों ओर समाज के आम इंसान के बेहतर जीवन के शुभचिंतको, ओर समाज के परम हितेषियों से, शिक्षा को सम्बल देने वालों से, परम्परा के पोषकों से निवेदन हैं कि आप समाज में सामाजिक क्रांति के लिए नशाखोरी, अफीमखोरी, मृत्यु भोज, दहेज प्रथा, घूंघट प्रथा, आटा-साटा, प्रिवेंडिंग फोटो शूट, अजकल नया tv सीरियल ट्रेंड हल्दी रस्म, डीजे का शौर, मायरा में अति दिखावे की रश्में जो आम समाज बन्धु के लिए समानता के स्तर में रुकावट हैं। इन बेहुदा रश्मों की वजह से लोग अपनी मूल परपम्परा ओर संस्कृति से दूरी बनाते जा रहे हैं। इसलिए आप सब का फर्ज बनता हैं समाज को विकृतियों से बचाने का। आप सभी लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ हैं। इस नाते आप खुल कर लिखो। माना इसके लिए हिम्मत चाहिए वो तो आप में बहुत हैं। इसलिए भी लिखो के “वो सादगी अब रही नहीं। मलाल इस बात का भी हैं, कि ये बात किसी ने कही नहीं।।”
“हर कोई मनाता रहा संस्कृति की बर्बादी का जश्न।
पर किसी ने हिम्मत करके नहीं उठाया उन विकृतियों पर अपना प्रश्न।।”
इसलिए लिखो जागो ओर जगाओ, ओर संस्कारों की अलख जगाओ। कभी न कभी तो सुधार होगा। माना जिनको समाज में अच्छाई पसन्द नहीं वो आपका मनोबल तोड़ने की आपको हर बात में किसी न किसी बहाने अपमानित करने का कार्य करेंगे तो क्या? जिसने समाज के लिए अपमान सहन किया वही महान बना। इसी आशा के साथ जय श्री विश्वकर्मा।
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ममता शर्मा “जाँगिड़” पाली
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