डॉ. ज्योति माने की कलम से जानिये: कबन्ध शिव की महाशक्ति छिन्नमस्ता का गूढ़ रहस्य

सूर्य ताप में जल रखन से जल तप जाता है, सूर्यास्त हो जाने फिर भी जल गर्म रहता है, इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य अपना ताप जल में छोड़ गया है। रात हो गई है। तारांगण निकले है, किंतु हवा गर्म चल रही है– इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य अपना ताप हवा में छोड़ गया है।

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मुंबई/जीजेडी न्यूज: कबन्ध और छिन्नमस्ता का शब्दबोध, अर्थ तात्विक बोध समझने के लिए वैदिक साहित्य और आगम साहित्य का अध्ययन आवश्यक हो जाता है। छिन्नमस्ता का शाब्दिक अर्थ है–कटे हुए सिर वाली देवी। इस अभिधान का गूढ़ रहस्य वेदों द्वारा उद्घाटित होता है। शतपथ ब्राह्मण,(1।1।2) के अनुसार सृष्टि का मूल यज्ञ पांच भागों में विभक्त है।

1) 2) हविर्यज्ञ 3) महायज्ञ 4) अतियज्ञ 5) शिरोयज्ञ।

1) पाकयज्ञ को स्मार्तयज्ञ भी कहां जाता है। इसी के ग्रहयज्ञ और एकागनीयज्ञ दो रूप और है।

2) हविर्यज्ञ अग्नि होत्र यज्ञ, दर्शपौर्नमास्य यज्ञ, चातुर्मास्य यज्ञ और पशुबंद यज्ञ हविर्यज्ञ है।

3) महायज्ञ भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पीतयज्ञ, देशयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ ये पांच महायज्ञ है।
4) अतियज्ञ, अग्निचयन, राजसूर्य, अश्वमेघ और बाजपेय ये चार यज्ञ अतियज्ञ है।
5) शिरोयज्ञ ‘छिन्न शिशो वे यज्ञ: श्रुति के इस वचन के अनुसार उपर्युक्त सभी यज्ञ छीन्नशीर्ष– शीर रहित है।

सभी का मस्तक कटा हुआ है। इसीलिए पूव्रोक्त चारों यज्ञों के अंत में ‘शिरसंधान‘ यज्ञ किया जाता है। उसी को ‘शिरोयज्ञ‘ कहते हैं। इस यज्ञ को न करने से यज्ञ अधूरे सिर रहित रह जाते है। ब्राह्मण ग्रंथों में शिरोयज्ञ को ‘सम्राटयोग‘ प्रवग्रयाग ‘धर्मयाग‘ और ‘महावीरोपासना‘ नाम से व्यवहृत किया गया है। यज्ञों के मस्तक कटने का अभिप्राय वैदिक साहित्य के अनुसार इस प्रकार है– उपयुर्क्त यज्ञों और उनके अव्ययोंका जो निरूपण किया गया है। उसमें ब्रह्मयज्ञ (ब्रम्हायोदन यज्ञ) और प्रवग्रयाग का संबंध छिन्नमस्तक से है। जिस वस्तु का आत्मा से नित्य संबंध रहता है, उस आत्मा को ब्रम्हयोद़न कहा गया है। वह वस्तु (अन्न) उस ब्रह्म का ओदन है। उसे केवल ब्रह्म ही ग्रहण कर सकता है। दूसरा नहीं! जो वस्तु उस आत्मा से अलग होकर दूसरे का अन्न ओदन बन जाता है,

उसे प्रवग्यर कहते हैं। प्रवग्यर का अर्थ उच्छिट (जूठा) है। उसका विज्ञान सम्मत तात्पर्य यह है कि सूर्य का ताप जो सूर्य से संबंध रखता है, वह उसका ‘ब्रम्हौधन‘ है, और जो ताप सूर्य से अलग होकर औषधि, वनस्पति तथा प्राणी वर्ग की सृष्टि में सहायक बनता है , वह प्रवग्यर है। इसे और अधिक सरल व्यवहारिक ढंग से इस प्रकार कहा जा सकता है।

सूर्य ताप में जल रखन से जल तप जाता है, सूर्यास्त हो जाने फिर भी जल गर्म रहता है, इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य अपना ताप जल में छोड़ गया है। रात हो गई है। तारांगण निकले है, किंतु हवा गर्म चल रही है– इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य अपना ताप हवा में छोड़ गया है। जल और हवा में सूर्य द्वारा ताप को छोड़ जाना ही सूर्य का प्रवग्यर (उच्छिष्ट) भाग है। इसी को ‘धर्मभाग‘ भी कहा गया है। धर्म का शाब्दिक अर्थ धाम है। धाम ही का अपभ्रंश गरम या गर्म है।

वस्तुतः सभी सौर पदार्थ सूर्य से पृथक रहते हैं, यदि सूर्य अपने इस उच्छिष्ट भाग को न छोड़े तो सृष्टि की उत्पत्ति असंभव है। इसीलिए वैदिक श्रुति कहती है कि संपूर्ण जगत की रचना उच्छिष्ट से हुई है –उच्छिष्टात सकल जगत यही प्रवग्र्य भाग–उच्छिष्ट भाग उस यज्ञ का मस्तक है वह कटकर जब अलग हो जाता है, वह कट कर जब अलग हो जाता है तो वह यज्ञ ‘छिन्नशीर्ष‘ कहलाता है। निष्कर्ष यह है कि ब्रम्ह्योधन से आत्मरक्षा होती है और ‘प्रवगय‘ से सृष्टि का स्वरूप बनता है। यही ‘प्रवगय‘ निगम आगम की प्रतीक भाषा में कबंध कहलाता है और इसी कबंघ पुरुष की महाशक्ति छिन्नमस्ता है। जो महामाया ‘षोडशी‘ से ‘भुनेश्वरी‘ बनती हुई संसार का पालन करती है, वही अंत काल में ‘छिन्नमस्ता‘ बनकर संसार का नाश करती है। छिन्नमस्ता का स्वरूप यह है– पैंतरा बदलकर वह शक्ति सदा खड़ी रहती है।उसका सिर कटा हुआ है और कटे हुए सिर के कबंध से बहते हुए रक्त को खप्पर भर– भर कर वह पी रही है। वह देवी दिग्वासना– नग्न है। त्रिनेत्र है, ह्रदय में कमल पुष्प की माला धारण किए हुए है, सिर में मनी रूप से नाग बांधे हुए हैं।

इस स्वरूप को खप्पर, रक्त, नाग और नग्नता प्रतीकों की रहस्य व्यज्ञख्या पीछे, महाकाली, षोडशी, आदि शक्तियों के स्वरूप तत्व के चिंतन में की जा चुकी है। शाक्त प्रमोद छिन्नमस्ता तंत्र में महाशक्ति ‘छिन्नमस्ता‘ को ‘पराडाकिनी‘ कहां गया है।

इसी के साथ मां भगवती मां शक्ति छिन्नमस्ता का गूढ़ रहस्य यहीं समाप्त होता है। आगे दक्षिणामूर्ति महाशक्ति त्रिपुर भैरवी के बारे में जानेंगे
धन्यवाद।
🔱 जय मां दुर्गे 🔱

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18 Comments
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