डॉ. ज्योति माने की कलम से जानिये: महाकाल पुरुष की शक्ति महाकाली का गूढ़ ज्ञान
प्रतीक विद्या, अब तंत्र ग्रंथों में उल्लेखित मिलती है। इस विद्या का प्राय: लोप हो गया है। महाकाली की सभी शक्तियां अचिंत्य है। निर्गुण है प्रत्यक्ष से परे हैं। इसलिए उसके स्वरूप –ज्ञान के लिए एवं उनकी उपासना के लिए ऋषि यों ने मूर्तियों की रचना वैचीत्र पर संदेह किया जा रहा है। कुछ लोग इस रचना विज्ञान को वहशीपन भी कहने का साहस करते हैं।
सबसे पहले मैं अपने पाठकों का मन पूर्वक आभार और धन्यवाद देती हूं, आप लोगों ने मेरा लिखा हुआ आर्टिकल्स को बहुत सराहा सम्मान दिया। इसलिए एक बार फिर से बहुत-बहुत धन्यवाद🙏
मुंबई/जीजेडी न्यूज: अभी हम मां जगत जननी, सर्व रूपिणी, पूरे विश्व में व्यापक रूपी महा दुर्गा को प्रणाम करते हुए, मां के दस अवतार स्वरूप के गहन ज्ञान की चर्चा करेंगे। इसमें हम मां भगवती के 10 अवतार में शिव और शक्ति का इस विश्व में पूरे ब्रह्मांड में कैसे व्यापित है। इसके बारे में चर्चा करेंगे।
1 महाकाल पुरुष की शक्ति महाकाली का गूढ़ ज्ञान
सर्वप्रथम जब कुछ न था उस समय केवल अनुपाख्य तम था। वह अनुपाख्यतम– अलक्षण, अप्रज्ञात, अप्रतक्यर, अनिर्देश्य तत्व है। यही तत्व महाकाल है, और शक्ति उसकी शक्ति महाकाली है। यही महाविद्याओं की पहली विद्या का रूप है। सृष्टि से पहले इसी महाकाली का प्रथम महाविद्या का साम्राज्य रहता है। आगम शास्त्र मैं इसे ही प्रथम आधा कहां गया है। रात्रि प्रलय का प्रतीक है। रात्रि की अर्धरात्रि– घोरतम महानिशा ही महाकाली है। रात के अंधकार को ऋषि यों ने 84 भागों में विभक्त किया है। यह विभाग ही महाकाली के 84 अवान्तर विभाग है। महाकाली के 84 स्वरूप एक– दूसरे से भिन्न है। रात्रि के इन्हीं स्वरूपों को समझने के लिए ऋषि यों ने निदान विद्या के आधार पर मूर्तियों की कल्पना की है। निदान का दूसरा नाम प्रतीक है।
यह निदान विद्या– प्रतीक विद्या, अब तंत्र ग्रंथों में उल्लेखित मिलती है। इस विद्या का प्राय: लोप हो गया है। महाकाली की सभी शक्तियां अचिंत्य है। निर्गुण है प्रत्यक्ष से परे हैं। इसलिए उसके स्वरूप –ज्ञान के लिए एवं उनकी उपासना के लिए ऋषि यों ने मूर्तियों की रचना वैचीत्र पर संदेह किया जा रहा है। कुछ लोग इस रचना विज्ञान को वहशीपन भी कहने का साहस करते हैं।
कुछ लोग मूर्तियों और उनकी उपासना को मूर्खता अज्ञानताका घोतक मानते हैं। वस्तुतः 10 महाविद्याओं के स्वरूप का संबंध निदान विद्या से है। काली तंत्र में महाकाली का स्वरूप यह बताया गया है।
महाकाली शव पर आरूढ़ है, उन की आकृति भयावनी है, उनकी दाढ़ें अति तीक्ष्ण और भयावह है। महा भव देने वाली महामाया महाकाली हंस रही है। उसके चार हाथ है एक हाथ में खड़क है, दूसरे हाथ में सध: छीत्रमुंड है, तीसरा हाथ अभय मुद्रा में है और चौथा हाथ वर मुद्रा में है। उनकी लप-लपआती हुई लाल जिहया बाहर निकली हुई है। महाकाली निर्वस्त्र सर्वथा नग्न है। महास्मशान भूमि उनका आवास है।
महाकाली के इस भयानक स्वरूप का रहस्य निदान विद्या के आधार पर इस प्रकार समझा जा सकता है। महाकाली नाम की शक्ति प्रलय रात्रि के मध्यकाल में संबंध रखती है। विश्वातीत परात्पर नाम से प्रसिद्ध महाकाली की शक्ति मां काली का विकास विश्व से पहले का है। विश्व का संघार करने वाली कालरात्रि महाकाली है। महाकाली की प्रतिष्ठा सृष्टि काल नहीं बल्कि शव रूप है, जिस पर वह आरूढ़ है। सृष्टि के इस रहस्य को भी व्यक्त करने के लिए महाकाली को शवारूढ कहा गया है। तात्पर्य है की प्रलय काल में विश्व शव के समान हो जाता है। उस पर अकेली आद्याशक्ति महाकाली खड़ी रहती है। वह आद्याशक्ति रूपा विनाश करने वाली है। संहार करने के कारण वह भयावीनी है और अपनी विजय पर उन्नत होकर हंस रही है। महाकाली की चार भुजाओं और उनके आयुध्यों का रहस्यबोद्ध इस प्रकार है। खगोल विज्ञान के मत से प्रत्यक गोलव शत् में 360 डिग्री अंश माने जाते हैं।
90 डिग्री अंश की गणना से उसके चार विभाग किए जाते हैं। यह विभाग ही उस गोलव शत की चार भुजाएं मानी जाती है। वेदों में इन्हें ख–स्वस्तिक कहा गया है। खगोल का यही स्वस्तिक इंद्र ( चित्रा नक्षत्र), पूषा ( रेवती नक्षत्र ), तक्षर्य ( श्रवण नक्षत्र), बृहस्पति ( लुब्धक नक्षत्र) है अर्थात इन चारों का, इन नक्षत्रों से संबंध रहता है। चित्रा से श्रवण 180 डिग्री अंश पर है। इसी तरह शेष सभी की स्थिति है। यजुर्वेद के निम्नांकित मंत्र में स्वस्तिक की स्थिति का बोध इस प्रकार कराया गया है।
स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति न पूशा विश्ववेदा:।
स्वस्ति नस्तक्ष्र्योरिष्टनेमि:
स्वस्ति नो बृहस्पतिद्रधायु।।
इंद्र, पूशा,तक्षर्य्य और बृहस्पति यह चारों महाकाश की चार भुजाएं जो पूर्ववृत्ति रूप में है। महाकाली की चार भुजाएं हैं। खड़ग संहार का प्रतीक है, सध: छिन्नमस्तक अहंकार नाश का प्रतीक है। महाकाली के एक हाथ की अभय मुद्रा है। और दूसरे हाथ की वर मुद्रा है। साधकों की मुख्यतया तीन प्रकार की कामनाएं होती हैं। 1 वर्ग पार्थिव सुख चाहता है। 1 वर्ग स्वर्ग सुख चाहता है और एक वर्ग मोक्ष चाहता है। पार्थिव सुख में साधक के लिए सबसे बड़ा बाधक भय होता है। इस भय को दूर करने के प्रयोजन से महाकाली अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं। स्वर्ग की कामना रखने वाले साधक को भगवती वरदान देने के लिए वर मुद्रा धारण करती है। जो साधक मोक्ष चाहता है। उसे मोक्ष प्राप्ति के प्रबल विघ्र अहंकार का नाश कर भगवती मुक्त कर देती है।
मां काली मुंडमाला धारण किए हैं इस रहस्य को इस तरह खोला जा सकता है।
विश्व सुख क्षणिक है, अतः वह दुख रूप है। महाकाली परम शिव रूपा भी है। इसलिए उसकी आराधना से शाश्वत सुख भी मिलता है। जो महाकाली जीवित दशा में सब का आधार बनी रहती है, वही प्रलय काल में भी सब का आधार बनती है। वीनष्ट विश्व के वीनष्ट प्राणियों का निर्जीव भाग भी महाकाली पर स्थित रहता है। इसी परायन भाव का निदान नर मुंडो की माला है। प्रलय में सब का नाश हो जाता है और पुना: सृष्टि होती है।
उस सृष्टि को पुनः आरंभ करने के लिए जगत माता संसार के बीज को अपने गले में धारण कर लेती है। यह संसार बीज ही मुंडमाला का प्रतीक है। भगवती महाकाली का स्वरूप निर्वस्त्र एकदम नग्न बताया गया है। इस नग्नता का रहस्य प्रतीकों के अध्ययन से समझा जा सकता है। समस्त विश्व ब्रम्हांड महाशक्ति काली का आवरण रूप है। वह विश्व की रचना कर उसी में प्रविष्ट हो जाती है। इसीलिए विश्व महाकाली का आवरण वस्त्र हो जाता है।
किंतु जब वह विश्व का सहार कर चुकती है।
केवल दिशाएं ही उसके लिए वस्त्र बनती है। वह पूर्ण दिगंबरा बन जाती है। इसका निदान यह है कि विश्व का प्रलय काल ही इस महाशक्ति का विकास काल है। समस्त विश्व जब श्मशान बन जाता है तो इस तमोमयी महाकाली का विकास होता है।
महाकाली के स्वरूप तत्व का यह चिंतन निदान विद्या के अंतर्गत है। इसी के साथ यह अध्याय समाप्त करती हूं।
दूसरा अध्याय मां तारा से सुरु होगा।
,🙏🙏 जय माता दी 🙏🙏
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