डॉ. ज्योति माने की कलम से जानिये: पंचवक्त्र शिवा की महाशक्ति मांषोडशी का गूढ़ ज्ञान

शक्ति भेद एवं कार्यभेद से भगवान शंकर के अनेक रूप होते हैं। शिव तो एक ही है जब वह सूर्य रूप में पांच दिशाओं में व्याप्त होते हैं। तो पंचमुखी बन जाते हैं।

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मुंबई/जीजेडी न्यूज: सूर्य ही त्रेलोक्य का विश्व में समस्त प्राणियों का, अमृतमर्त्य प्रजा का निर्माण करता है। वेदों में इसके प्रमाण मिलते हैं। जब सूर्य उत्पन्न होते ही उग्र रूप धारण करने लगा तो उसमें पारमेष्ट्य सोम की आहुति होने लगी। आहुति पाते ही सूर्य की उग्रता शांत हो गई। रुद्राग्नि सूर्य शिव बन गया। शिव भावापत्र सूर्य ही संसार का उत्पादक है। शिववात्मक सूर्य ही पृथ्वी, अंतरिक्ष और भूलोक रूप त्रिलोकी का और उसमें रहने वाली अमृतमर्त्य प्रजा का निर्माण करता है।

इस शिववात्मक सूर्य शक्ति को तंत्रास्त्र में ‘पंचवक्त्र शिव‘ की शक्ति कहां जाता है। उस शक्ति का नाम ‘षोडशी‘ है। जिस तरह अग्नि रूद्र की शक्ति ‘तारा‘ है। उसी तरह पंचवक्त्र शिव की शक्ति षोडशी है। मध्य कालका सूर्य घोर सूर्य कहां जाता है और प्राप्त काल का सूर्य ‘सौम्यसूर्य‘ कहा जाता है। और प्रात: काल का सूर्य ‘शांतशिव‘ कहा जाता है। शांत शिव शक्ति शिवा है। संसार में शिवाशक्ति के स्वरूप है।

शक्ति भेद एवं कार्यभेद से भगवान शंकर के अनेक रूप होते हैं। शिव तो एक ही है जब वह सूर्य रूप में पांच दिशाओं में व्याप्त होते हैं। तो पंचमुखी बन जाते हैं। उनके पांचों मुख पूर्वा, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, और ऊध्वरा दिशाभेद से क्रमशः 1–तत्पुरुष,2– सधोजात, 3–कामदेव,4– अघोर, और 5– ईशान नाम से प्रसिद्ध है। यह पांच मुख क्रम से चतुर्षकल, अष्टकल, त्रयोदशकल, आष्टादशल और पंचकल है। इन पांचों मुखों का वर्णकम से हरीत, रक्त, धूम्र, नीला,और पित है। शिव के दस हाथ है। और दस हाथों में वह अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड़क, अंकुश, घंटा, नाग, और अग्नि यह दस आयुध धारण किए रहते हैं।

यह शिव सर्वज्ञ है, इनके तीन नेत्र हैं। इनका स्वरूप अनादि बोध है। यह स्वतंत्र अनुत्पशक्ति और अन्नातशक्ति है। पांचो दिशाओं में इनकी शक्ता है और पांचों दिशाओं को देखते रहते हैं। इनके तीन स्वरूप धर्म है। अग्ननेय, वायव्य, और सौम्या। इन तीनों स्वरूप धर्मों के प्रत्येक के तीन –तीन भेद है। अग्नि, वायु और इंद्र– आग्नेय प्राण के भेद है। वायु, शक्ति और अग्नि– वायव्य प्राण के भेद है।
वरुण चंद्र और दिक–सौम्या प्राण के भेद है। इन सबको मिला देने से शिव की नौ शक्तियां होती हैं। यह शक्तियां घोर उग्र है। इन नावों शक्तियों का आधारभूत प्रोरोरजा नाम का सर्व प्रतिष्ठा रूप शांतिमय प्रजाप्रत्यप्राण है। दस हाथ और दश आयुद्ध इन्हीं शक्तियों के प्रतीक है।

इस प्रकार के प्रतीकों से मंडित पचकल, अव्यय पंचवक्त्र शिव है। जिनकी शक्ति षोडशी है। पंचवक्त्र शिव पंचकल, अव्यय पंचकल, अक्षर पंचकल, आत्मक्षर परात्पर कि समिष्टि है, इसलिए इन्हें ‘षोडशी पुरुष‘ कहां जाता है। स्वयंभू, परमेष्ठि, सूर्य, चंद्र और पृथ्वी इन पांचों में से एक मात्र सूर्य में ही षोडशी का पूर्ण विकास होता है, क्योंकि स्वयंभू अव्यक्त है, इसलिए वहां विकास नहीं, यज्ञ वृत्ति के कारण परमेष्ठि में विकास इसमें आया हुआ चिदत्मा पूर्ण रूप से उल्वन हो जाता है।

स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चंद्र और पृथ्वी इन पांचों में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, अग्नि और सोम –इन 5 अक्षरों की प्रधानता रहती है। इन पांचों में जो इंद्रात्मक सूर्य है, उसमें ही षोडशी का विकास है, इसीलिए सूर्य रूप इंद्र के लिए कहा गया है। वृहदारण्यक उपनिषद के इस कथन के अनुसार सृष्टि–साक्षी, आत्मा– मन, प्राण–वाङ्मयमय इन तीन की सत्ता है। स्थावर जनगमात्मक विश्व का आत्मा सूर्य है। सूर्य में षोडशकल पुरुष का पूर्ण विकास होने के कारण यह षोडशी है, और इसकी शक्ति भी षोडशी कहलाती है। इसी षोडशी शक्ति से ही भुर: भुव: स्व: रूप 3 ब्रह्मापुर, उत्पन्न है। इसीलिए तंत्र शास्त्रों में इसे ‘त्रिपुरसुंदरी‘ कहा गया है। शाक्त प्रमोद तंत्र में त्रिपुरासुंदरी का स्वरूप यह है।

तंत्र शास्त्र के कथन के अनुसार शिव और शिवा के तीन ज्योतिषियों से विश्व को प्रकाशित कर रखा है। यह तीन ज्योतियां है। अग्नि( सूर्य का ताप), प्रकाश और चंद्र (आहुति सोम) इन्हीं तीन ज्योतियां का प्रतीक त्रिपुरसुंदरी का त्रिनेत्र है। इन्हीं ज्योतियों का कारण सूर्य को लोकचक्षु कहा जाता है। संपूर्ण खगोल में सौर शक्ति व्याप्त है। और खगोलकी चार भुजाएं (स्वस्तिकआकार) त्रिपुरासुंदरी की चार भुजाओं का प्रतीक है। त्रिपुरीसुंदरी सोमाहुती पाकर शांत रहती है। अतः प्राप्त: काल का बाल सूर्य त्रिपुरासुंदरी की साक्षात प्रकृति है। बालार्क ( प्राप्त: काल का सूर्य) इसी अवस्था का प्रतीक है। सूर्य से उत्पन्न होने वाली प्रजा सौर शक्ति से आबध रहती है और पृथ्वी भी उससे आबध है। वह कभी अपने क्रांति वृत्त को नहीं छोड़ती है। उस सौर शक्ति ने अपने अपने आकर्षण रूप पाश से सभी को आबाद कर रखा है। पाश इसी आकर्षण शक्ति का प्रतीक है। अक्षर रूपा उस नियति के भय से सभी अपना–अपना कार्य यथावत कर रहे हैं। सूर्य भी उनके भी उनके भय से तपता है। अग्नि भी उसके भय से तपती है। उसके भय से इंद्र, वायु, मृत्यु सभी अपने –अपने कार्य में रहते हैं।

इस तरह त्रिपुरसुंदरी सभी पर अंकुश रखती है। अंकुश इसी नियंत्रण व्यवस्था का प्रतीक है। त्रिपुरसुंदरी शर धारण करती है। जो उसके निर्धारित अटल नियमों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें वह विनिस्ट कर डालती है। पृथ्वी, अंतरिक्ष और धौ– इन 3 लोगों में व्याप्त रुद्र के अन्न, वायु, और वर्षा यह तीन प्रकार के इशु (बाण) है। यह इशु त्रिपुरसुंदरी के हैं। इन्हीं इशुओं से वह संहार करती है। त्रिपुरसुंदरी के आयुध शर के प्रतीक अन्न,वायु और वर्षा है। त्रिपुरासुंदरी शक्ति सिद्धिदात्री है। बिना इस की कृपा से साधक को सिद्धि नहीं मिलती है।

ये अध्याय यही समाप्त करती हूं।

अगला चौथा आध्याय मे महाशक्ति भुवनेश्वरी माता के बरे में चर्चा करेंगे।

धन्यवाद 🙏

🔱 *जय मां दुर्गे* 🔱

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14 Comments
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