कवि दलीचंद जांगिड सातारा वालों की कलम से: टूटते परिवारों की कहानी
प्राचीन काल में मारवाड़ में चार चार पिढ्ढी के एक ही संयुक्त परिवार हुआ करते थे। वह एक ही घर में रहा करते थे, जो भी पैत्रिक काम धन्धा होता था। वह सब परिवार के लोग मिलकर करते थे व साथ में खेती बाड़ी, पशुपालन का धन्धा भी प्रमुख धन्धे के आधार पर किया करते थे।
✍️ लेखक की कलम से……
प्राचीन काल
प्राचीन समय में संयुक्त परिवारों (बड़े परिवार) की थोड़ी बात कर लेते है फिर बात करेंगे वर्तमान के बिखरते (टूटते परिवार) परिवारों की वह बिखरते परिवारों की कहानी को भी समजेंगे सविस्तार से……
प्राचीन काल में मारवाड़ में चार चार पिढ्ढी के एक ही संयुक्त परिवार हुआ करते थे। वह एक ही घर में रहा करते थे, जो भी पैत्रिक काम धन्धा होता था। वह सब परिवार के लोग मिलकर करते थे व साथ में खेती बाड़ी, पशुपालन का धन्धा भी प्रमुख धन्धे के आधार पर किया करते थे। परिवार से अलग होने की सोच भी उनकी नही होती थी। हर त्यौहार साथ मिलकर बड़ी ही धूमधाम से मनाते थे। सुख दुख का सामना भी परिवार लोग साथ मिलकर करते थे। साथ ही दुख के समय में मोहल्ले के व गांव के लोग धेर्य बंधवाते थे। रही बात काम धन्धे की तो हर जाती को अपने अपने पैत्रिक धन्धे से मतलब था। कोई किसी दुसरे का धन्धा नही किया करता था। सब अपने काम में व्यस्त रहते थे। वह उस जमाने में रुपया इतना था नही सो देन लेन का व्यवहार अनाज से ही किया करते थे। हर किसी का मेहनताना (मजदूरी) भी अनाज दे कर ही चुकाते थे। यह समय मैंने सन 1962 के आसपास का अपनी नजरो से देखा है वह बनीये की दुकान पर भी अनाज दे कर किराणा का सामान खरीद लाते थे।
सगे सम्बन्धीयों की आवाभगत (मान मनवार) परिवार के सभी सदस्य मिल जूलकर करते थे, मेहमान आने पर चार दिन तक अपने घर पर नही रुके तो आन्नद भी नही आता था जोर जबरदस्ती मेहमानों को चार पाच दिन रोके रखते थे वह खूबसारी मान मनुहार करते थे व समय समय पर समाजिक कार्यों में सभी नियोजित जगह इक्कठे होते थे व गहरी प्रेम भावना से उस समाज के कार्य ( सगाई, ब्याव शादी, व मृत्यु भोज) में शामिल होकर समाजिक रिवाज निभाते थे, एक दुसरे को देखकर दिल की गहराई से खुश होते थे व नई पुरानी सभी प्रकार की बातों की याद दिलाकर हंस हंस बातें करते थे वह कहते थे की बड़ा मजा आया सो हमें न्यातगंगा के आज दर्शन करने का सौभाग्य मिला है।
ऐसे समाजिक मिलन के बड़े मौके पर ही अपनी बेटी व बेटो की सगाई की बात चलाते थे वह बात कायम करते थे, उस जमाने में यातायात के साधन ऊंटगाडे, बैलगाडी हुआ करती थी या प्रमुखता पैदल चलकर ही अपनी यात्रा करते थे, इसलिए रिश्ते बीस तीस पचास किलोमीटर तक ही सीमित ऐरीये में ही किया करते थे।
गांव घर छोड़कर बाहर कमाने के लिए जाने की प्रथा उस जमाने नही थी व हरेक को अपने गांव में या पास के गावों में काम मिल जाता था व परिवारजनों का खर्चा चल जाता था।
साई इतना दिजीए
मैं भी भुखा ना रहूं
मेरे घर के दरवाजे से
साधू ना भुखा जाए
बस इसी धारणा को लेकर वे लोग अपना जीवन निर्वाह करे थे, एक दुसरे के देखा देखी की होडा होड़ बिल्कुल नहीं थी इसलिए वै लोग सुखी थे।
वर्तमान काल के बिखरते परिवार
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अब बात कर लेते वर्तमान समय की……
अब गांवों में पैत्रिक धन्धों में बहुत सा बदलाव आ चुका है परिवारों के बढते भाई भाई के बंटवारे से खेत जमीन भी टुकड़ों में बंट गई है जिससे परिवार का गुजारा भी नही चल रहा है साथ ही पढाई का दौर चल पड़ा है वह सरकारी नौकरी की प्रथा आ गई है इसलिए गांव में नही रहते हुए अन्य गांवों वह शहरों की ओर लोग प्रस्थान कर रहे हैं, एक को रुपया पैसा कमाता देखकर दुसरे के मन में भी होडा होड़ सी लग गई है।
आजकल अपने से दुखी नही है पर दुसरे का देखकर हर मनुष्य दुखी है यह वाक्या भी वर्तमान में देखने को मिल रहा है यह स्पर्धा युग का आगमन हुआ है ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है।
पीछले बीस तीस बर्षो में व्यौपार का दौर भी तेजी रफ्तार पकड़ रहा है जिसमें लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे है, पक्का मकान बनाना, टू व्हिलर, फाँरव्हिलर व माँर्डन लाईप स्टाइल (एक तारीख को आने वाले घर खर्चों के बिलों की भरमार) जीने चाहत रखने वालों की होड ने मनुष्य को मशीनरी युग में झोक दिया है, बस ज्यादा पैसे कमाने के चक्रव्यूह फसने के कारण ही आज के परिवार छोटे छोटे टूकड़ो में बट गये है वह जाँइन्ट फेमेली की प्रथा भी लुप्त होती सी दिखाई दे रही है वह समाज से प्रेम भावना भी कम होती दिखाई दे रही है साथ ही तेज रफ्तार की दौड़ से प्रेम भावना भी कम होती दिखाई दे रही है व परिवार टूटते नजर आ रहे है पति-पत्नी भी अलग अलग जगह नौकरी पर है, बेटे विदेशों में पढ रहे है या फिर विदेशों मे जाँब कर रहे है तब प्रेम भावना का कम होना स्वाभाविक हो जाता है, तब लेखक लिख देता है एक लेख…..वर्तमान समय का सृजन करते हुए…..
“टूटते परिवारों की कहानी”
अब लोगों के पास पैसा है पर सुख नही है, परिवार व समाज में समय नही देने के कारण रिश्तों में व परिवार में दूरीयां बढती जा रही है, प्रेम भावना कम होती जा रही है वह एक दुसरे से अपरिचित होते जा रहे है।
जय श्री विश्वकर्मा जी री सा
लेखक: दलीचंद जांगिड सातारा महाराष्ट्र
मो: 9421215933
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