कवि दलीचंद जांगिड सातारा वालों की कलम से: कुल्हाड़ी व पेड़ की कहानी है पुरानी

एक दिन कुल्हाड़ी पेड़ से बोली, तेरा मेरा बैर तो है सदियों पुराना।

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कुल्हाड़ी व पेड़ की कहानी है पुरानी
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एक दिन कुल्हाड़ी पेड़ से बोली
तेरा मेरा बैर तो है सदियों पुराना
आज फैसला हो जाए
तुम ताकतवर हो या मैं हूं
सभा बुलाई सारे गांव की
चौपाल पर सतरंजी बिछाई
सरपंच जी को अध्यक्ष बनाये
मुंशीजी बने उपाध्यक्ष
आरोप प्रति-आरोप शुरु हुए
पेड़ बोला कुल्हाड़ी से
तू तो आज भी दुसरों के
हाथों की कटपूतली है
जांगिड और किसानों के हाथों में
तेरी नियंत्रण वाली लगाम है

हम तो खड़े है वन उपवन में आंधी तूफान बरसात में
अपने पैरो के बलभूते पर खड़े है
तू तो डरपौक है कुल्हाड़ी बै सहारी
सांज होते ही लोगों के घरों में छुप जाती
इसीलिए हम तेरे बाप के बाप है इसलिए हम तेरे से ताकदवान है

हम तो सर्दी हो बरसात हो
या हो गर्मी मई जून जुलाई की
हर दम मानव सेवा में रहते है तैयार
लोग मुझे पत्थर मारते है
फिर भी मैं उन्हैं मिठ्ठे फल देता हूं
पथिक को छाया देता हूं
साधु संत करे हमारी छांव में विश्राम
कवि तुलसी बाबा ने संग हमारे
बैठ लिख दी “तुलसी रामायण”
मानव सेवा हमारा धर्म है तो
फल देना कर्म है हमारा
मानव पशु पक्षियों को फल देते है
हमारे पत्तों से पेट भरते है पशु

चुल्हा जलाने को देते है सुखा तना हम
कुल्हाड़ी तू तो बड़ी विनाशकारी है
माना की तू काट छांट में भारी है
भाई से भाई के झगड़े में
अपराध तू करवा देती बड़ा भारी
पोलीस थाने में कैद हो जाती है
पर ऐ सुन कुल्हाड़ी बात मेरी
सौ दोसौ बर्ष बाद मैं मर भी जाऊ
तो मेरा तन भवन निर्माण में काम आता है

अरे कुल्हाड़ी तेरे वंशज तो
तौफे बंदूक बम्ब गोळे बन बैठे है
कब विश्व युध्द शुरु हो जाएं,
तेरे वंशज से तो हमे भगवान ही बचाएं
अरे तुझे तो आसरा दिया जांगिड समाज ने
रहन सहन चलना फिरना तो सिखाया है

सारे जांगिड समाज ने
विनाशकारी पथ छुड़वाया है
कृषि औजार बनाना तूझे सिखाया है
जब से तू सुधरी है तो जांगिड समाज ने
दशहरे को पूजा कर तूझे राखी बांधी है
पूजन तेरा सुतार घर हुआ है
काट-छांट आदत तेरी पुरानी है
हम पेड़ों को कब तूने राखी बांधी है,
तू तो सदा बैरण रही है हमारी
अरे हम पेड़ सांस लेकर ना छोड़े
तो लोग आँक्सीजन कहा से लाएंगे
हम बादलों (मान्सून) को नही बुलाएंगे तो

पानी कहा से लाओंगे
घर का भेदी लंका ढाएं
मेरा एक छोटा भाई हो गया तेरे साथ
हत्था बनकर साथ तेरा निभाया है
जो अपनों ने दिया दर्द वो गेरों से कम नही होता
घर का भेदी औरों से मिल जाता है
तब बड़े बड़े सिंगासन डोल जाते है
हमे गेरों ने नही जख्म पहुंचाएं है

पर अपनों (हत्थे) ने ही कटवाया है
हा बै शक तेरे हाथो से कटने का मुझे गम है
फिर लौटकर दुबारा आऊंगा
इस धरती माता (सृष्टि) को हरा भरा बनाऊंगा….
हा भाई हा मैं पेड़ हूं
मानव सेवा मेरा धर्म है
फल देना मेरा कर्म है
मै बार बार लौटकर आऊंगा…..

🌳🌴🌳🌲🌴🌳🌴🌲🌳
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

जय श्री विश्वकर्मा जी री सा
लेखक: दलीचंद जांगिड सातारा महाराष्ट्र
मो: 9421215933

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14 Comments
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