कवि दलीचंद जांगिड सातारा की कलम से: आँखो से संसार निहारता हूँ….

उगते-डूबते सुरज की लालिमा को निहारती है ये आँखे, प्रात भ्रमण में बाग-बगीचों में फुलों को निहारती ये आँखे।

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आँखो से संसार निहारता हूँ….
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उगते-डूबते सुरज की लालिमा को निहारती है ये आँखे,
प्रात भ्रमण में बाग-बगीचों में फुलों को निहारती ये आँखे।

भ्रमण पथ पर मिले प्रेमियों से हाथ मिलाने पर हंसती है ये आँखे,
कभी प्रेम से दोस्तों के संग ठहाके लगाने पर हंसी के फुव्वारें छोड़ती है ये आँखे।

तो कभी दुश्मन को गुस्सा वाला बै रंग रुप भी दिखाती है ये आँखे,
तो कभी-कभी हंसते-हंसते अपने परिजनों से मिलाती है ये आँखे।

प्यार प्रेम में दिल की जुबां बन जाती है ये आँखे,
तो कभी आँखों की भाषा बनकर ईशारों ईशारों में बहुत कुछ कह जाती है ये आँखें।

कभी इंसान को निर्दोष तो कभी गुनाहगार लगती है ये आँखे,
गम और खुशी में आंसू अक्सर छलका जाती है ये आँखे।

ईश्वर ने बनाई एक अनमोल रचना है ये आँखे,
हर कवि और लेखक की कल्पना अधूरी है इन दो आँखो के बिना….

छलक जाए तो मधुशाला की प्याली लगती है ये आँखे,
और जूक जाए तो शर्म से बै हाल कर देती है ये आँखे।

रातों के अंधेरे से निकालकर प्रातकाल में सुर्य दर्शन कराती है ये आँखे,
कवि की कविता भी अधूरी है इन आँखों के बिना
ईश्वर ने दिया हुआ सुंदर उपहार है ये आँखे।

करु धन्यवाद जन्म दाता ईश्वर का जो बहुमुल्य प्यारी-प्यारी ये दो आँखे हमें दी है…….

इन दो आँखो से आये दिन संसार निहारता हूँ…..
प्रकृति की सुंदर रचनाएं देखता हूं इन दो आँखो से……

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जय श्री विश्वकर्मा जी की

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