कवि दलीचंद जांगिड सातारा वालों की कलम से: अहंकार व संस्कार की परिभाषा

अहंकार का जन्म कैसे हो जाता है, कहा से पनपता है अहंकार वह समय पाकर बड़ा हो जाता है, व उद्रेक मचाता है अहंकार........?

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  • आज जानेंगे अहंकार व संस्कार के बारे सविस्तार, इन दोनो में क्या है अन्तर…….?
  • अहंकार का जन्म कैसे हो जाता है, कहा से पनपता है अहंकार वह समय पाकर बड़ा हो जाता है, व उद्रेक मचाता है अहंकार……..?
  • इसके उलट दुसरा होता है संस्कार, जो परिवार के लिए, समाज के लिए, सुखदाई होता है वह देश प्रगती में भी भागीदारी निभाता है।

मुंबई/जीजेडी न्यूज:✍️ लेखक की कलम् से……

अहंकार
किसी मनुष्य को कम समय में वह कम परिश्रम करते हुए किसी भी चिज का (अर्थ, बल , व भौतिक साधन संपदा) सहज जरुरत से ज्यादा मात्रा में मिल जाना, यही से वह मनुष्य अपने विवेक पर से धीरे धीरे ताबा खो बैठता है व यही से छोटे रुप में अहंकार (गमंड) का बचपन शुरु (अहंकार का उगम स्थान) हो जाता है वह समय पाकर विशाल रुप धारण कर लेता है, तभी तो प्रबुद्ध ज्ञानी लोग क्या कहते है, जानिए……

किसी व्यक्ति के पास जरुरत से ज्यादा धन का कम समय में आना, जरुरत से ज्यादा बल का शरीर में आना, जरुरत से ज्यादा ज्ञान पर अज्ञान का हावि होना, समाज व राजनिती के कार्यों का अनुभव नही होते हुए अपने धन के बल भूते पर बड़े पद पर आसीन हो जाना यह अहंकार के जन्म भूमि की जगह हो सकती है,कम कष्ट में व कम समय में आसानी से ज्यादा धन व उच्च पदों का मिल जाना ही अहंकार की शुरुआत का केन्द्र बिन्दु हो सकता है, साधारण भाषा में इसे गमंड कहते है, शक्ति (धन व बल) का गलत इस्तेमाल ही गमंड की जन्मदात्री है, जिसका अहंकार रुपी वृक्ष के गर्भ में गमंड का निवास होता है, यही से वह अज्ञानी व्यक्ति अहंकार को पाल बैठता है वह इसी को सब कुछ सही मान बैठता है, यही भूल उस व्यक्ति को कुछ काल बितने के बाद समाज से अलग थलग कर देती है, जब तक यह घटना क्रम उसे ध्यान में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, व समाज उसको गमंडी के रुप में सम्बोधित करने लग जाता है, यही अहंकार की परिभाषा हो सकती है, अहंकार की अल्प आयु होती है, व धीरे धीरे सर्व नाश हो जाता है!

संस्कार
जबकि इसके उल्ट संस्कार (ज्ञान की नियमावली) एक ऐसी ज्ञान की धारा है जो शुरुआत में बाल्य अवस्था से किशोर अवस्था तक संसार की प्रथम गुरु माँ के द्वारा, व साथ ही परिवार के थोर सदस्यों के सानिध्य में रहते हुए फिर पाठशाला में गुरुजनों के द्वारा सिखाई व सिखी जाती है जो परिवार को, समाज को,वह राष्ट्र को बलशाली बनाने की नियमावली (संस्कार) कहलाती है, इसी नियमावली को अच्छे संस्कार कहते है, ज्ञान कहते है, यही संस्कार की परिभाषा हो सकती है, इसी संस्कारों से परिपूर्ण व्यक्ति धीरे धीरे कछुआ चाल के चलते अपने घर में, समाज में अपने सफल जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु समाज के उत्थान के कार्य करते हुएं एक दिन सबका साथ पाकर उच्च स्थान पा लेता है इसमे तिलमात्र की शंका नही होनी चाहिए, संस्कार की आयु लम्बी होती है, ऐसा व्यक्ती लम्बे समय तक अपने हुनर से सबको फाईदा ही पहुंचाता है!

यह अहंकार व संस्कार के बीस का अंतर (फर्क) होता है।

 

जय श्री विश्वकर्मा जी री सा
लेखक: दलीचंद जांगिड सातारा महाराष्ट्र

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