कवि दलीचंद जांगिड सातारा की कलम से: कर्मों की गठड़ी बांध, मैं चला प्रभु के द्वार…..
दूर्लभ मानव तन मैंने पाया था, बंद मुठ्ठी में शुभ कर्म साथ लाया था।
कर्मों की गठड़ी बांध,
मैं चला प्रभु के द्वार…..
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दूर्लभ मानव तन मैंने पाया था,
बंद मुठ्ठी में शुभ कर्म साथ लाया था।
कुछ शुभ कर्म जन हित में कर गुजरु,
यह मन में विचार बार-बार आया था।
माँ के गर्भ में प्रभु से परहित कर्म करने का,
वादा कर पक्का भू-तल पर आया था।
तब बड़े सौभाग्य से मानव तन पाया था,
जन्मोत्सव पर घर परिवार में अनंत खुशिया छाई थी।
पांच बर्ष की आयु में जेब वाला वस्त्र किया जब धारण,
मोह माया ने ले चंगूल में मुझे भटकाया था।
आया यौवन काल तरुणाई ने ली अंगड़ाई,
मोह-माया ने चारों ओर से मुझको घेरा था।
अब प्रभु से किया वादा भूल गया था,
संसार में देखी भौतिक सुख सुविधाओं की भरमार।
मैं भी लोभी बन गया था, सम्मान वैभव पाने को,
भरने लगा अनावश्यक भौतिक पूंजी के भण्डार।
जब आई बारी प्रारब्ध के शेष फल भुगतान की,
दुखों से दुखी हुआ गम चिंता से हुआ बेहाल।
तब देख संसार के परहित कर्मों की रीत,
जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान।
सत्संग में जाना आना लगा रहा निरन्तर,
संतों ने ये ज्ञान का उपदेश सत्संग में सुनाया था
तब अंध आंखे खुली मेरी,
प्रभु से किया वादा पुरा करने की आई बारी।
कर कर पर हित के काम,
बांध कर्मों की गठड़ी…
मैं चला अब प्रभु के द्वार….. 🏃🏾♂
भावार्थ = सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं,… रास्ता भटक गया था कहते है…..
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जय श्री ब्रह्म ऋषि अंगिरा जी की
लेखक/कवि: दलीचंद जांगिड सातारा महाराष्ट्र
मो: 9421215933
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