घेवरचन्द आर्य पाली की कलम से: पितरो का अपमान वर्तमान मेकाले की शिक्षा का कमाल; वृद्धाश्रम का भारतीय संस्कृति मे कोई स्थान नहीं।
शास्त्रो का अध्ययन करने से ज्ञात होता है, किे भारतीय संस्कृति मे अनादि काल से महाभारत काल तक आश्रमो और वर्णव्यवस्था का महत्व रहा है। 5 से 25 वर्ष तक गुरूकुल मे अध्ययन करने मे व्यतीत होता है वह ब्रह्मचर्य आश्रम।
लेखक: घेवरचन्द आर्य, पाली
अनादि सनातन भारतीय धर्म शास्त्र।
भारतीय धर्म शास्त्र- चार वेद, चार उपवेद, चार ब्राह्मण ग्रथ, दस उपनिषद, छ: उपाङ्गः (दर्शन), छ: वेदाङ्गः, तीन सूत्र ग्रथ, एक इतिहास ग्रथ, एक स्मृति ग्रथ, छ: आरण्यक। आदि धर्म शास्त्र तथा पांच हजार साल पूर्व वेदव्यास द्वारा रचित इतिहास ग्रथ महाभारत, 18 पुराण, जैन शास्त्रो और आगमों मे अनाथआश्रम, विधवाश्रम और वृद्धाश्रम का कोई नाम उल्लेख नही मिलता है।
भारतीय संस्कृति मे आश्रमो का महत्व।
शास्त्रो का अध्ययन करने से ज्ञात होता है, किे भारतीय संस्कृति मे अनादि काल से महाभारत काल तक आश्रमो और वर्णव्यवस्था का महत्व रहा है। 5 से 25 वर्ष तक गुरूकुल मे अध्ययन करने मे व्यतीत होता है वह ब्रह्मचर्य आश्रम। 26 से 50 वर्ष तक घर परिवार मे रहकर प्रजाओ की वृद्धि उसका भरण पोषण करते है वह गृहस्थाश्रम। 51 से 75 वर्ष तक घर परिवार मे रहकर समाज सेवा या गुरुकुल मे अध्यापन एवं लोकोपकार मे व्यतीत होता है वह वानप्रस्थ आश्रम। और 76 वर्ष से अन्तिम समय तक भिक्षाटन कर नदी के प्रवाह की तरह निरन्तर चलते हुए लोकोपकार मे व्यतीत होता है वह संन्यास आश्रम कहलाता था।
सनातन काल मे महात्मा शिव, ब्रह्मऋषि अंगिरा, देवऋषि विश्वकर्मा, राजऋषि मनु, ऋषि वाल्मीकि, सहित सभी ऋषि और राजे महाराजे आदि इन आश्रम व्यवस्था का पालन करते थे।आजकल के पोराणिक संत महात्मा, तथाकथित कथावाचक और वैदिक संन्यासी अपने-अपने मन्दिर, मठ, आश्रम, गुरूकुल आदि बनाकर खुश हो रहे है। दुसरो को उपदेश देते है मोह माया मे मत उलझो, और खुद इनका मोह नही छोडते। इसलिए उनका नदी के प्रवाह की तरह निरन्तर गति करना (चलते रहना) बंद हो गया है। फिर आमजन को धर्म शास्त्रो का ज्ञान और धर्म का बोध कौन करवाये ?
जैन समाज से सिखने की जरूरत।
जैन दर्शनो मे भी दिक्षा का महत्व है, जो की सनातन काल से चली आ रही संन्यास आश्रम परम्परा का ही विकृत रूप है। जैन समाज ने शास्त्रो का पालन करते हूए अपने साधुओं के लिए नदी के प्रवाह की तरह गतिमान रहना अनिवार्य कर दिया है। जिससे कोई भी जैन साधु कभी 6 माह से अधिक एक जगह नही ठहरते । इस व्यवस्था से चोमासे के चार माह को छोडकर जैन संत सदेव भ्रमण करते देखे जा सकते है। इससे जैन समाज मे अपने धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा भक्ति और लगाव देखने को मिलता है। जैन साधु परिवार एवं मोह माया से मुक्त रहता है। परिणाम स्वरूप जैन समाज मे अनुशासन और संस्कारीता देखने को मिलती है।समाज का एक छोटा सा बच्चा भी जैन सिद्धान्तो धर्मग्रन्थो और आगमों की जानकारी रखता है।
वृद्धावस्था मे कठोर श्रम एवं सेवा।
धार्मिक ज्ञान एवं संस्कारो के अभाव मे कई लोग अपने माता पिता को वृद्धाश्रम मे छोड देते है। वही यह 62 वर्षीय दिव्यांग “बधिर” लेखक और उनकी धर्मपत्नी सुमित्रा आर्या (58) जो एक पांव से पोलियो ग्रस्त है। अपनी 103 वर्षीय माँ की सेवा सुश्रुता करते है। दिव्यांग दम्पति का आदर्श सेवा भाव समाज और हर व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है। प्राय: देखा जाता है- उम्र की अधिकता से जब वृद्ध माता पिता की स्मरण शक्ति क्षीण हो जाती है। आंखो की रोशनी कम हो जाती है। चलना फिरना मुश्किल हो जाता है, वे बिस्तर पकड लेते है। और अन्दर ही मलमूत्र करते है। ऐसी अवस्था मे अधिकाश परिवार जन उनकी सेवा मे रुचि नही लेते, उनको उसके हाल पर छोड़ देते है। इसके विपरीत यह वृद्ध लेखक रोज दिन मे दो बार माँ के कपडे उतार कर बिस्तर परिवर्तन कर स्वछ धुले वस्त्र पहनाकर बिस्तर साफ करते है। और मां के कपडे, बिस्तर आदि गर्म पानी मे सर्फ डालकर साफ धोकर सुखाते है। मातृ पितृ भक्त श्रवण कुमार की तरह पहले मां को भोजन करवाकर फिर स्वयं भोजन करते है। एक कर्मयोगी की तरह जिविकोपार्जन के लिए काम पर जाते है। शाम को आकर पुनः माँ के कपडे बिस्तर धोते है। यह क्रम रोज चलता है।
सेवा करने से मिलती सुखद आत्मिय अनुभूति।
माता-पिता क्रोधी है, पक्षपाती है, शंकाशील है। यह सारी बाते बाद की है, पहली बात तो यह है कि वो माता-पिता है। इसी भावना को हृदयगम करके यह दम्पति अपने कर्तव्य का निर्वहन कर मांँ की सेवा करते है। हर व्यक्ति पर बचपन मे अपने माता-पिता के शील संस्कार का प्रभाव पडता है। बडे होने पर उनमे संगति का प्रभाव स्पष्ट देखा जाता है। अगर व्यक्ति किसी धार्मिक समाज संगठन जैसे-आर्य समाज, आर्य वीर दल, आर एस एस से जुडता है। तो उसमे सेवा भाव एवं आज्ञापालन की लो प्रज्वलित होती है। जिससे वो बडे बृर्जुग पीतरो एवं माता-पिता की सेवा करते है। उनको माता-पिता की सेवा से जो सुखद अत्मिय अनुभूति मिलती है, उसका वर्णन शब्दों मे नही किया जा सकता। इसके विपरीत कोई मनुष्य गलत संगति से दुर्व्यसनो फंस जाता है, तो वह माता-पिता को कष्ट देकर दुखी करता है। इसलिए कहावत है प्रसिद्ध है कि “जैसा संग वैसा रंग”।
भारतीय संस्कृति पर हमला।
दार्शनिक रूप से यह सच है कि यदि किसी देश को नष्ट करना है तो उसकी प्राचीन संस्कृति पर हमला करिये। उसके ज्ञान विज्ञान उसके स्वाभिमान पर हमला करिये। भारत मे पिछले 1000 वर्षो से यही हो रहा है। एक समय था जब भारत के हर गांव मे गुरूकुल होता था। उस समय भारत विश्व मे सोने की चिडियां और रामराज्य के रूप मे विख्यात था। मुगलो और अग्रेजो ने इस गुरूकुलीय शिक्षा को नष्ट करने का सारा जोर लगाया पर सफल नही हुए। दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी इस पर कोई विराम नही लगा है। क्यो की स्वतंत्रता के बाद से 60-65 वर्ष तक काग्रेस का शासन रहा है। यह सभी जानते है की काग्रेस की स्थापना ए. ओ. ह्यूम जिसका पुरा नाम एलेन ओक्टेवियन ह्यूम था जो ब्रिटिशकालीन भारत में सिविल सेवा के अधिकारी एवं राजनैतिज्ञ थे ने अग्रेजो के हित मे की थी। काग्रेस का वामपंथी सेकुलर सिद्धांत भारतीय संस्कृति के विरोधी रहा है। इसलिए स्वतंत्रता के बाद भी देश की शिक्षा पद्धति कोई सुधार नही हुआ। जिसका परिणाम आज हमारे सामने है।
सनातन धर्म संस्कृति का पतन।
माता-पिता अपने पूरे जीवन की पूंजी अपनी संतान को पाल पोस कर बड़ा कर किसी योग्य बनाने में लगा देते है। आपने देखा होगा नव विवाहित अपने लाडले पुत्र/पुत्री को कितने प्यार एवं स्नेह से स्कूल छोडते और स्कुल से वापस घर लाते है। अगर उनकी संतान सक्षम होने पर धार्मिक शिक्षा एवं संस्कारो के अभाव मे अपने बूढ़े माता-पिता को अकेला छोड़ देती है, और उनको वृद्धाश्रम का सहारा लेना पड़ता है। यह हमारी वर्तमान सेकुलर, वामपंथी शिक्षा पद्धति का दोष है, माता-पिता का नही। इससे सनातन धर्म और संस्कृति का घोर पतन हो रहा है। धार्मिक, नैतिक शिक्षा एवं संस्कारो के अभाव मे हमारी सनातन कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था जातिवाद की भेट चढ गई है। और आश्रम व्यवस्था ओजल हो गई है।
वृद्धाश्रम वर्तमान शिक्षा का कमाल।
आजादी के बाद से वर्तमान समय मे शिक्षा का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। अग्रेजो के समय से प्रचलित मेकाले की अग्रेजी शिक्षा से सरकारी नोकरशाह, उधोगपति, व्यापारी बन जाते है। लेकिन नैतिक, धार्मिक शिक्षा की कमी के कारण अपने धर्मग्रन्थो का स्वाध्याय नही करते, जिससे शास्त्रो मे वर्णित सोलह संस्कार एवं आश्रम व्यवस्था से अनभिज्ञ भावी पिढी अपने माता-पिता से दूर हो रही है। जिस देश मे, जिस समाज में वृद्धाश्रम, अनाथ आश्रम, विधवा आश्रम आदि जैसे आश्रमों की भरमार हों, तो वह सामाजिक और नैतिक पतन का सूचक होता है। वृद्धाश्रम की भरमार का सीधा अर्थ है कि संतान अपने कर्तव्य “माता पिता का कहना मानो” को भूलकर बूढ़े माता-पिता से जीवन के उस मोड़ पर मुँह मोड रही है। जिस समय उन्हें अपनी संतान की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
विधवा का विवाह अनिवार्य हो।
इसी तरह विधवा आश्रम या अनाथ आश्रम भी हैं। जिनकी आवश्यकता भी तभी पड़ती है जब हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती है। विधवाओं की संख्या बढ़ना या अनाथों की संख्या बढ़ना किसी समाज की प्रगति का सूचक नहीं है। आज समाज को आश्रमों की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने नैतिक बल और सामाजिक कर्तव्य को मजबूत करने की आवश्यकता है। अगर समाज और सरकार विधवा विवाह का अभियान चलावे तो विधवा और अनाथ आश्रम की जरूरत नहीं ना पड़े।
इस पतन को कैसे रोका जाय।
भारतीय सनातन वैदिक संस्कृति के अनुसार पाठयक्रम मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्णव्यवस्था तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम व्यवस्था को पुनः स्थापित कर आर्ष पद्धति के गुरुकुल गांँव-गांँव, शहर कस्बो मे स्थापित किये जाये। वहां ऊपर वर्णित सनातन भारतीय धर्म ग्रथो का पठन पाठन करवाया जावे। जैसा की सम्राट अशोक के समय नालदा और तक्षशिला मे करवाया जाता था। तो भारतीय संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठित कर इस पतन को रोका जा सकता है। और भारत पुनः विश्वगुरु एवं सोने की चिडिया बन सकता है।
इतिश्योम्
चार वेद: ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद । चार उपवेदः आर्युवेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, अर्थवेद। चार ब्राह्मण ग्रंथ: शतपथ, एतरेय, ताण्डय, गोपथ । दस: उपनिषद् : ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक। छ: उपाङ्ग: (दर्शन): योगदर्शन, सांख्यदर्शन, वैशेषिकदर्शन, मीमांसादर्शन, न्यायदर्शन, वेदान्तदर्शन। छः वेदाङ्गः शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष | तीन सूत्रग्रथ: धर्मसूत्र, गृहसूत्र, शुल्बसूत्र। एक इतिहास ग्रथ: रामायण । एक स्मृति ग्रथ: मनुस्मृति । छ: आरण्यक ग्रथः
ऐतरेयारण्यक, शाखायनारण्यक, वृहदारण्यक, तेतिरीयारण्यक, मैत्रायणीय आरण्यक, तलवकार आरण्यक।
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