घेवरचन्द आर्य पाली की कलम से: बाढ़ और लक्ष्मी की विरह वेदना

आज मुझे पहली बार माँ के चेहरे पर बुढापे की पीडा का दर्द स्पष्ट दिखाई दिया। मैने देखा चेहरे पर झुर्रिया पड गई है। सिर के बाल हंस की तरह सफेद हो गये है। हाथ पैर आदि शरीर के सारे अंग ढीले पड गये है।

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लेखक – घेवरचन्द आर्य पाली

18 जून 2023 को पाली में रात भर जोरदार बारिश आई, जो अब भी जारी है। बाहर वर्षा हो रही है। बादल गरज रहे हैं। प्रातः 5 बजे उठा और सीधा माँ के पास गया, माँ ने बिस्तर पर ही पेशाब कर दिया है। जिससे उनके कपडे गीले हो गये है।
मैंने माँ से कहा कपडे उतार दूं।
माँ ने धीरे से सिर हिलाकर जबाब दिया, नहीं।
आज मुझे पहली बार माँ के चेहरे पर बुढापे की पीडा का दर्द स्पष्ट दिखाई दिया। मैने देखा चेहरे पर झुर्रिया पड गई है। सिर के बाल हंस की तरह सफेद हो गये है। हाथ पैर आदि शरीर के सारे अंग ढीले पड गये है। जीवन को मृत्यु ने घेर रखा है। पैर डगमगाते है, दांत टूट गये है। दृष्टि क्षीण हो गई है। कानो से कम सुनाई देता है। मुंह से लार टपकती है। शरीर केवल हड्डीयों का पिंजर रह गया है। चलना फिरना तो दूर उठना-बैठकर भी मुस्किल हो गया।

स्नेह से पूर्ण अनुराग से युक्त अत्यंत मधुर आवाज बोलने वाली माँ की आवाज बिल्कुल धीमी हो गई है। जैसे कोई स्वयं ही गुनगुनाता है। किसी समय मांँ सौंदर्य का साक्षात रूप थी। जवानी के दिनों में यौवन और मस्ती से भरपूर मांँ के अंगों का विन्यास सम था। उसके शरीर का रंग चिकना एवं सुन्दर था। चन्द्रमा के समान विकसित मुख मण्डल, महामलीन के समान काले केश, पदमराग मणी के समान लाल-लाल हाथ, हिरण के बच्चे के नैत्रो के समान दोनों नेत्र पुतली का रंग काला, सफेद भाग एक दम गाय के दूध के समान और भोहों का रंग काला था। हिरणी की तरह मन्द मन्द गति से घर एवं गांव में विचरण करने वाली, अपने बंधु बांधवो के साथ सरलता,उदारता से व्यवहार करने और सज्जन व्यक्ति की तरह संतोष से निर्वहन करने वाली माँ आज एकदम शान्त है। किसी निस्पृह योगी की तरह ईश्वर भक्ति मे लीन है।

सज्जनो का संग,घर आये हूए अतिथि के साथ आदर व्यवहार करना, प्रेम एवं स्नेह मांँ का विशेष गुण है। इन्हीं गुणों के कारण जिस प्रकार नदियां समुद्र में पहुंचती है। इसी प्रकार उनके पास सदा गांव की छोटी-बडी स्त्रियों का समागम लगा रहता था। मांँ की दशा और आज का मौसम देखकर मैं अपने बचपने में खो गया। बात सन् 1975-76 की है जब मैं आठवीं में पढता था। बारिश का मौसम था, पिताजी अस्वस्थ थे, उनका उदयपुर के सरकारी अस्पताल में ईलाज चल रहा था। मेरा बड़ा भाई कन्हैयालाल उनके पास था।

रात को जोरदार बारिश आई जो 36 घंटे बाद भी बंद नहीं हुई। उन दिनों आजकल की तरह गैस और गैस के चुल्हे नहीं थे। भोजन बनाने का एक ही उपाय था लकडी या उपले जलाना। घर में जितनी लकडियां और उपले रखे थे वह सब तीन दिन में काम ले लिए थे। अब जलाने के लिए सूखा ईंधन नहीं था। माँ को चिन्ता हुई, अब भोजन बनाने के लिए सूखी लकडियां कहां से लावे? बाहर मूसलाधार बारिश आ रही थी। बादल गरज रहे थे । बिजली चमक रही थी। बाडे़ में पशु ठिठुर रहे थे। वे भी कातर स्वर में पुकार रहे थे। खेत, तालाब सब भर गये थे। गाँव मे बाढ मे बाढ आ गई थी। लेकिन बारिश है की बंद ही नहीं हो रही थी। पति अस्पताल मे भर्ती घर मे अकेली स्त्री और छोटे-छोटे बच्चे।

उस समय मेरी उम्र 13 वर्ष छोटे भाई सोहन की उम्र 8 वर्ष और बहन मनोरमा की उम्र दो वर्ष के आस पास थी। घर की पोल (पोड) कच्ची थी उपर मिट्टी के थेपडों की छत थी। तेज हवा से पोल में पानी टपकने लगा। अन्दर रसोई और पास में ढालियां था। जिस पर लोहे के पतरे चढे हुए थे, लेकिन दीवारें कच्ची बनी हुई थी।
मां से मैंने कहां धा… भूख लगी है, कोठे में रोटी नही है।
माँ ने सिर पर हाथ फेरकर पास में बैठने का इशारा किया। उस समय माँ का दर्द कौन समझ सकता है ?
मैं और छोटा भाई पास बैठ गये।
माँ ने छोटी बहन को अपनी गोद में लेकर दोनों हाथ जोडे और अत्यन्त भावविह्वल होकर तेज आवाज में इन्द्र से प्रार्थना करने लगी –
हे! पर्जन्य देव हे! वर्षा के अधिपति इन्द्र! तेरे छोटे छोटे बच्चे भूख से विहल है। उन पर दया कर। और अब बरसना बंद कर। तीन दिन से तू लगातार बरस रहा है। आकाश मे बादलो के रूप मे भ्रमण कर रहा है। तू अब भी नही थका है। अब आराम कर और बरसना बंद कर दे। यह इस दुखियारी लक्ष्मी की विनती है ।और माँ की आखो से झर-झर अश्रुधारा बहने लगी। माँ को रोता देखकर हम भी रोने लगे थे।
माँ पुनः कातर स्वर मे विनती करने लगी –
हे! पर्जन्य देव,
हे! वर्षा के अधिपति इन्द्र।
अब तो रहम कर,
यह बाढ़ डरा रही ।

पेड पोधे नहा रहे,
झुक-झुक स्तुति कर रहे,
नदियां उफन रही।
हे ! पर्जन्य देव,
अब तो रहम कर,
यह बाढ़ डरा रही।

ताल तलैया भर गये,
कच्चे घर ढह गये,
बिटिया डर रही।
हे! पर्जन्य देव,
अब तो रहम कर,
यह बाढ़ डरा रही।

टर्र टर्र मेंढक बोल रहे,
स्तुति तेरी कर रहे,
कच्ची दीवारें टूट रही।
हे! पर्जन्य देव,
अब तो रहम कर,
यह बाढ़ डरा रही।

धुली धुली तन दीवारें,
घर मे पानी टपक रहा।
कच्चा आगन टूट गया,
लक्ष्मी विनती कर रही।
हे ! पर्जन्य देव,
अब तो रहम कर,
यह बाढ़ डरा रही।

सूखा ईधन जल गया,
अब चूल्हा जले कैसे।
भूख से व्याकुल बच्चे,
गौ माता पुकार रही।
हे! पर्जन्य देव,
अब तो रहम कर,
यह बाढ़ डरा रही।

आज वही लक्ष्मी बिस्तर पर हाथ पांव चलाने में असमर्थ है। उसकी यह दशा देखकर मै पुनः अपने बचपन मे खो जाता हूँ। चाहे कितनी ही आपति और विपतिया आई माँ ने अपने धेर्य को नही छोडा। कभी दुखी नही हुई। सदा आत्मविश्वास बनाये रखा। शरीर भंग हो जाए तो कोई बात नही अपने शील पर कभी आच नही आने दी। ऐसी स्वाभिमान लक्ष्मी अब चेतना शुन्य होकर बिस्तर पर ही मल मुत्र कर देती है। यह सोच कर मुझे फिर बचपन याद आता है। जब मैं बिस्तर में मल मूत्र कर रोता तो मांँ सब काम छोडकर मुझे साफ करती थी, और दूसरे कपडे पहनाती। उसका ऋण उतारने के लिए मैंने और सहचरी सुमित्रा ने मिलकर माँ के कपडे उतार कर दूसरे कपडे पहनाए, और नये बिस्तर पर सुलाया तो माँ ने हंसकर कृतज्ञता स्वरूप दोनों हाथों से हमें आर्शीवाद दिया। वास्तव मे माँ से बढकर इस दुनिया मे कुछ भी नही है। मुझे गर्व है की परमात्म कृपा से माँ की सेवा का पुण्य अवसर मिला है।

 

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