घेवरचन्द आर्य पाली की कलम से: सामाजिक कुरितियों के विरूद्ध 103 वर्षीय दादी लक्ष्मीदेवी का शंखनाद
लेखक: घेवरचन्द आर्य पाली की कलम से
लक्ष्मीदेवी का सक्षिप्त परिचय
नाम- तीजा उर्फ लक्ष्मीदेवी
पिता का नाम- माधोराम
जन्म तिथि- विक्रम संवत् 1977 कार्तिक शुक्ल तीज शुक्रवार दिनांक 12 नवम्बर 1920
जन्म स्थान- दयालपुरा जिला पाली, राजस्थान
पति का नाम- स्मृतिशेष भलाराम शर्मा
जन्म एवं नामकरण
राजस्थान के पाली जिला अन्तर्गत दयालपुरा गांव मे अंगिरा वंशज वनाराम जांगिड शिल्प कर्म करते थे। उनके दो पुत्र माधोराम और कालूराम हुए। माधोराम के दो पुत्रीयां अणची और तीजा (लक्ष्मी) तथा कालूराम के एक ही पुत्री हुई कंकू। दोनो भाईयो के कोई पुत्र नही होने के कारण जोधपुर जिले के पिपरली गाँव से पेमाराम लिकड को गोद लाये। मेरा जन्म कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की तीज के दिन होने से मां ने प्रेम से तीजा नाम रखा, पिता ने जोशी की सलाह पर लक्ष्मी रखा।
13 वर्ष की उम्र मे विवाह
गुलामी के काल की उस समय की प्रथा के अनुसार तीनो बहनो की शादी एक साथ ही हुई। बडी बहन अणची की गिरोलियां वाले प्रतापराम जोपिग से, मेरी (लक्ष्मी) की केरला वाले भलाराम सायल से, जबकी काका की लडकी कंकू की बिठू वाले हरीराम रालडियां से शादी हुई। शादी के समय मेरी उम्र मात्र 13 वर्ष थी।
सामाजिक कुरितियों के विरूद्ध पहला कदम
पिता ने मेरा विवाह अंगिरा वंशज रुपाराम शर्मा के बडे पुत्र भलाराम के साथ किया। मेरे पति नाम के अनुसार भले आदमी थे, वे दिनभर शिल्प (लकड़ी) का कार्य कर हाडतौड परिश्रम करते और साधु सन्यासियो की संगति मे रहते। उनकी धर्मनिष्ठा और संगति का प्रभाव मुझ पर भी पडा और मुझमे भी धार्मिक वृति जागृत हुई। हमारे घर हर वर्ष स्वामी ऋतमानन्दजी अंगिरा द्वारा हवन, संत्सग, प्रवचन होते थे। इससे सामाजिक कुरितियों के विरूद्ध शंखनाद करने की मुझमे इच्छा जागृत हुई, और उस समय समाज मे प्रचलित चुडा प्रथा का सबसे पहले मेने विरोध करते हुए पति की आज्ञा से ऋतमानन्द जी अंगिरा के समक्ष चुडा उतार दिया। हालांकि मै पढी लिखी नही हूं लेकिन धर्मनिष्ठ पति के साथ विद्वानों से शास्त्रो का ज्ञान श्रवण करके उन्हे समझकर आत्मसात करने मे समर्थ हुई हूँ।
गायत्री मंत्र का चमत्कार
मै स्वामी ऋतमानन्दजी अंगिरा की आज्ञा से गायत्री मंत्र का अनुष्ठान कर आत्मसात करने मे सफल हूई। केरला एवं आस पास के दस कोस गांव मे जिसके भी छणक या मौच पडती, वह मेरे पास आता, मै दर्द स्थल पर गायत्री मंत्र जाप के साथ उल्टी कुल्हाड़ी या वसुला फेरती, लोग खुशी खुशी ठीक होकर जाते थे।
पुष्पमाला, चद्दर, या कपडे न लावे
मेरी उम्र 103 वर्ष से अधिक हो गई है, यह जीर्ण शरीर छोडने का समय आ गया है, अब तो मृत्यु को आना ही है “जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु” (गीता 2/27) सो एक दिन वह आयेगी, जिस दिन प्रभू बुलायेगा उस दिन किसी को कष्ट दिये बिना ओ३म् का स्मरण करती हुई खुशी-खुशी उसके पास चली जाऊंगी। प्रभू के पास जाने से पूर्व अपने मन की बात कह रही हूँ जब मै मर जाऊ तो कोई भी अडोसी, पडोसी, रिश्तेदार, परिवार जन, समाज बंधु अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए पुष्पमाला, चादर, कपडे आदि लेकर न आवे। क्योंकि पुष्पमाला चादर कपडे आदि की आवश्यकता जीवितों के लिए ही है, मृतको के लिए नही। यदि आप अपनत्व दिखाने के लिए कुछ लाना ही चाहते है तो समिधाएं, चन्दन, गुगल, हवन सामग्री और घृत लेकर आवे जो मेरे अन्तिम संस्कार मे काम आवे।
शव के पास अगरबत्ती न जलावे
जब मै मर जाऊ तो मुझे भूमि पर ले लेना क्योंकि माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:
वह इसलिए की अन्त समय भी मै अपनी मां पृथ्वी की गोद से वंचित न रहूँ. मेरे शव के सिरहाने घी का दिया या अगरबत्ती जलाने की कोई आवश्यकता नही है। क्योंकि रोशनी की जरूरत जीवित के लिए ही होती है मरने वाले के लिए नहीं। वैसे भी शास्त्रों मे ऐसा कोई विधान नही है, यदि अंधेरा है तो प्रकाश के लिए घृत का दिपक जलाये रखना ठीक है।
मुझे स्नान करवा कर घर की स्त्रियाँ नवीन वस्त्र पहनावें, सिर एवं शरीर पर चन्दन का लेप कर फिर मुझे लकडी की अर्थी पर सुलाकर कच्चे सूत और कलावा से बांधकर शमशान ले जाने की तैयारी करे।
शवयात्रा मे कोई रोक टोक न हो
मेरी शवयात्रा मे जो भी सम्मिलित होना चाहे आने को स्वतंत्र है। किसी के भी भाग लेने पर कोई रोक टोक न हो, अन्तिम संस्कार से लोगों को शिक्षा मिलती है की- आदमी खाली हाथ ही आया है, और खाली हाथ ही जायेगा। शवयात्रा मे राम नाम सत है की जगह ओ३म् नाम शत है का उच्चारण किया जावे। क्यो कि परमात्मा का मुख्य नाम ओ३म् ही है और वही सत् है। चुकी यह मनुष्य का अन्तिम संस्कार है अतः उसमे कोई भी निशकोच सम्मिलित होकर अपनी आहुतियां दे सकता है।
अन्तिम संस्कार विधिवत करे
मेरे पति ऋतमानन्दजी अंगिरा के शिष्य और यज्ञोपवीत धारक वैदिक धर्मी थे। पति का धर्म ही पत्नि का धर्म होता है इसलिए ही उसे धर्म पत्नी कहते है। वैदिक धर्म मे शवदाह को अन्तिम संस्कार कहा गया है। जब शवयात्रा शमसान पहुंचे तो वहाँ वैदिक विधि-विधान से प्रयाप्त मात्रा मे घृत एवं हवन सामग्री की आहुतियां देकर मेरे शव को भस्म कर देवे।
घर की शुद्धि हेतु यज्ञ करना
मेरी अन्त्येष्टि संस्कार के तुरन्त बाद परिवार जन घर आकर स्नान करके घर एवं पर्यावरण की शुद्धि की दृष्टि से उसी दिन घर पर शुद्धि हवन अवश्य करें । उसके दो तीन दिन बाद कोई एक सदस्य शमशान जाकर मेरी अस्थियाँ एकत्र कर वही आस पास या किसी सार्वजनिक स्थल पर गड्डा खोदकर उसमें दबा देवे और उस पर एक वृक्षारोपण कर देवे। जिससे मेरी अस्थियाँ खाद बनकर उस वृक्ष का पोषण करे।
शोक सभा या श्रद्धाञ्जलि सभा का औचित्य
मेरी श्रद्धांजलि सभा करने का भी कोई औचित्य नहीं है , क्यो की दिवगत की आत्मा की शान्ति के लिए अन्तिम संस्कार के 121 मंत्रो मे से बीच के 63 मंत्रो को छोडकर सारे मंत्रो मे आत्मा की शान्ति की प्रार्थना की गई है। दुसरी बात यह है की जीवित व्यक्ति ही अपने लिए शान्ति की कामना करता है।
प्रेरणा या संकल्प दिवस मनाये
यदि सामाजिक दृष्टि से कुछ कार्यक्रम करना हो तो तीसरे दिन सायं अथवा आगामी किसी भी दिन सुविधानुसार ‘प्रेरणा दिवस’ या ‘संकल्प दिवस’ के रूप में मना सकते हैं। जहाँ उपस्थित जन मेरे जीवन के गुणों पर प्रकाश डालते हुये उन गुणों से कुछ प्रेरणा लें। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण अवश्य होते हैं। गुण- ग्राहक लोग गुणों को लेते और अवगुणों को चित्त नहीं धरते। इसी अवसर पर परिवारिक जन यह भी संकल्प ले सकते है। जैसे- मैंने जीवन मे कभी चाय नही पी, किसी प्रकार का नशा नहीं किया, पानी तो दूर कभी दूध या छाछ नहीं बेची। गौ पालन कर गौमाता की सेवा की, हर परिस्थिति मे सदा स्वाभिमान एवं आत्म विश्वास बनाये रखा। अपने शील एवं चरित्र की रक्षा की, कितना भी कष्ट आया कभी धर्म से विमुख नही हुई। ढोंग, अंधविश्वास एवं व्यर्थ के पाखंड से दूर रही और अपनी संतानो को भी इनसे दूर रखा आदि आदि।
रोने धोने का दिखावा या वेद विरूद्ध कर्मकांड न करे
पूर्ण आयु प्राप्त परोपकारी और धर्मात्मा जिनके कर्म मेरी तरह यज्ञीय (श्रेष्ठतम) और सुकर्म होते हैं और वे सामने आते हैं, तो उनके चेहरे पर सन्तोष छलकने लगता है । मृत्यु के निर्णय का स्वागत करते हुये वे झटपट मृत्यु के गले लग जाते हैं। पुराने जर्जर वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र को धारण करने की प्रसन्नता उनके मुख मण्डल पर होती है। दयानन्द की तरह मन ही मन प्रभू तेरी इच्छा पूर्ण हो कहकर परमेश्वर को धन्यवाद देते हुये, वे जीवितों को भी यह सन्देश दे जाते हैं। –
जब तुम आये जगत् में, जग हँसा तुम रोये।
करनी ऐसी कर चलो, तुम हँसो, जग रोये”॥
मुस्कराते हुये ओ३म् का उच्चारण करते हुए वे विदा हो जाते हैं। न कोई कष्ट न घबराहट और न छटपटाहट। सब कुछ सहज और शान्तिमय। इसलिए ऐसी महान मृत्यु पर किसी प्रकार का रोना धोना या वेद विरूद्ध कर्मकांड न करे।
मृतक भोज का आयोजन न करे
“हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा”।
समाज व्यक्तियों से बनता है, व्यक्ति सुधर जावेंगे तो समाज स्वयं सुधर जावेगा। सुधार की सोच बहुत जरूरी है। मृत्युभोज या अन्य सांकेतिक नाम जैसे- बाहरवां, तेरहवीं, मोसर, गंगा प्रसादी, पुष्कर प्रसादी, न्यात आदि का कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के कारण कई परिवार क़र्ज़ में डूब जाते हैं। और अपनों की ही मृत्यु उनके लिये अभिशाप बन जाती है। वैसे भी शुद्धि तो जल से होती है। भोजन खाकर या खिलाकर शुद्धि कभी नहीं होती है। अत: किसी प्रकार का मृतक भोज बिल्कुल न करें।
बहन बेटी परिवार के नाते रिश्तेदारों को बुलाकर साधारण तरीके से रीति रिवाज का निर्वहन करे। अगर गांव और समाज को भोजन खिलाने कि हेसियत है तो आगामी किसी दिन समाज संगठन का सामाजिक कुरितियों के विरूद्ध जनजागरण का कार्यक्रम रखकर सबको बुलाकर विधिवत प्रस्ताव पारित कर हेसियत अनुसार भोजन करवा सकते है।
श्राद्ध और तर्पण के नाम पर हलवा-पूरी न खिलावे।
शास्त्रो के अनुसार श्राद्ध और तर्पण जीवितों का होता है, मृतकों का नहीं। भोजन की आवश्यकता शरीर को होती है, आत्मा को नहीं। अतः जब तक यह पता न हो कि मेरी (दिवगत) आत्मा को कौन-सा शरीर मिला, तब तक जन्मना ब्राह्मणों, समाज या न्यात को मृतक भोज के नाम पर हलवा-पूरी खिलाने का कोई तुक नहीं है। जीवित वृद्ध माता-पिता, सास-श्वसुर तथा अन्य परिचित या अपरिचित वृद्ध, असहाय व्यक्तियों की श्रद्धापूर्वक सेवा करना ही श्राद्ध और उनको उचित धन, अन्न, पथ्य-भोजन, वस्त्र, औषधि आदि से तृप्त करना ही तर्पण है।
मेरी या किसी की भी पुण्यतिथि न मनावे।
जैसे जीवित रहना कोई पाप कर्म नहीं, वैसे ही मृत्यु ( मर जाना) कोई पुण्य कर्म नहीं है। जिसको पुण्य स्मृति के रूप में याद किया जावे। हाँ यदि अपने बुजुर्गों की जन्म तिथि किसी कारणवश न पता हो, तब बात दूसरी है। आप उनको मृत्यु या निर्वाण दिवस पर याद कर लें । मुख्य बात यह है कि (वफ़ात) मृत्यु का दिन मनाना ‘यवन’ (मुस्लिम) संस्कृति की देन है। भारतीय सनातन संस्कृति में महत्व ‘जन्म दिवस’ का है। आज भी रामनवमी, जन्माष्टमी, विश्वकर्मा जयन्ती, महावीर जयन्ती, गुरु नानक जयन्ती, संत कबीर जयन्ती, संत रविदास जयन्ती, शिवा जयन्ती, महाराणा प्रताप जयन्ती, अम्बेडकर जयन्ती आदि ‘जन्म तिथि’ पर ही आधारित हैं।
अतः मेरी अभिलाषा केवल यह है, कि मेरा या किसी भी मृतक का ‘मृतक दिवस’ पुण्यतिथि के रूप में न मनाया जावे। केवल ‘जन्म दिवस’ स्मृति दिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाना चाहिये । यदि किसी की सही जन्म तिथि का पता न हो, तो उनके जीवन का कोई भी महत्वपूर्ण दिवस स्मृति दिवस के रूप में मनाया जावे, परन्तु मृत्यु दिवस पुण्यतिथि कदापि नहीं मनावे। यह सनातन धर्म संस्कृति के विरूद्ध है ।
-लक्ष्मीदेवी
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शानदार प्रस्तुति के लिए सम्पादक मण्डल का सादर साधुवाद एवं आभार जी।