दीपक आहूजा की कलम से: अंतस् की खोज
आज अंतस् में यह कैसी, अविरल गहन शाँति है, विचलित था जो मन मेरा, टूट गई इसकी भ्रांति है।
अंतस् की खोज
आज अंतस् में यह कैसी, अविरल गहन शाँति है,
विचलित था जो मन मेरा, टूट गई इसकी भ्रांति है।
कसक जो उठती थी, आज देखो विलुप्त हो रही,
यह ज्ञान चक्षु तो खुल गए, हो गयी नयी क्रांति है।
परम शाश्वत, परमानन्द ईश्वर भी, जैसे मिल गया,
यह कुम्हला चुका हृदय पुष्प भी, जैसे खिल गया।
कोई तो निवारण करे, इस दुविधाग्रस्त जीवन का,
जीर्ण-शीर्ण चादर का कपड़ा, प्रेम से सिल गया।
एक अमरत्व की चाह में, वर्तमान का पतन हुआ,
विलक्षण प्रतिभा जब मिली, प्रभु का करम हुआ।
भटक-भटक कर भी, ये हाथ खाली के खाली रहे,
परमेश्वर की भक्ति के लिए, मनुष्य जनम हुआ।
मृग कस्तूरी जैसे, ये मन अपनी गंध को, न जाने,
तलाश रहा जो जग में, वो बसता भीतर, न जाने।
जल में बसती यह मछली, जल को ही रहे ढूँढती,
सर्वत्र, सर्वदा, सर्वस्व में उसकी लौ को, न जाने।
दीपक आहूजा लेखक, कवि, उद्यमी और व्यवसायी।।
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