दलीचंद जांगिड सातारा वालों की कलम से: रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद

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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है।
उलझनें अपनी बनाकर आप हीफॅसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू मैं कितना पुराना हूँ.?
मैं चुका हूँ देख, मनु को जन्मते-मरते,
और लाखों बार तुझ से पागलों को भी
चाँदनी में बैठे स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है बुलबुला जल का
आज उठता और कल फूट जाता है,
किन्तु,फिर भी धन्य,ठहरा आदमी ही वे
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद!मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले है.? है यही पानी ?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू ?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नीव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फ़ौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ण के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे है वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे है वे।
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लेखक कवि रामधारी सिंह दिनकर जी
जय श्री विश्वकर्मा जी री सा
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प्रस्तुतकर्ता दलीचंद जांगिड सातारा महाराष्ट्र

 

 

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2 Comments
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