चिन्ता करता हूं भावी पिडीयों की
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पीड़ाएं मेरी पर्वत सी हो गई
अब ये पिगलनी चाहिए
एक नदी हिमालय से
सुखे प्यासे राजस्थान के लिए
अब अवश्य निकलनी चाहिए
खेत जमीन बहुत है मेरे पास
पानी बिन ऊगा ना पाऊं
अनाज देश वासीयों के लिए
चिन्तन सात पिडीयों का लिए मन में
अर्ज केन्द्र सरकार से करु
पीड़ा मेरी पर्वत सी हो गई
अब तो पिगलनी चाहिए
एक नदी अब तो हिमालय से
सुखे प्यासे राजस्थान के लिए
जरुर निकलनी चाहिए
मानवता के लिए निकलनी चाहिए
मैंने प्राचीन काल से अब तक
बहुत से अकाल देखे सहे है
रेगिस्तान है सबने कहते हुए
बै वारीस छोड़ दिया मुझे
गरीबी से लड़ता रहा हूं सदा
मजदूरी मिली नही मुझे पेट भर
परिवार मेरा बिखरता चला गया
तलाश मजदूरी की करते करते
पुरे भारत भर में फैल गया
मैं एक आम आदमी हूं भारत का
विन्नती करता हूं विनम्र भाव से
दिल्ली के तख्तधारीयों से
मुझे जीने के लिए पानी तो पिला दो
मेरी हरी भरी खेती के लिए
एक नदी मेरे प्रदेश में बहा दो
ना सोना मांगू , ना चांदी मांगू
चार पैसे की मजदूरी मांगू
कुछ कल कारखाने मांगू
मुझे जीने का हक्क दे दो
भावी पिडीयों के हाथ में काम दे दो
ऐसा कुछ इंतजाम कर दो
पीड़ा पर्वत सी हो गई है मेरी
अब पिगलनी चाहिए
एक नदी प्यास बुझाने के लिए
हिमालय से निकलनी चाहिए
मैं पश्चिमी सुखा राजस्थान हूं
बर्षों से अकाल झेलता आया हूं
अब चिन्ता करता हूं
आने वाली भावी पिडीयों की
मेरे खेतों को पानी दे दो
ओर ना कोई चाहत है मेरी
पीड़ा मेरी पर्वत सी हो गई
अब यह पिगलनी चाहिए
एक नहर ओर हिमालय से
मेरे राजस्थान के लिए निकलनी चाहिए
ये क्रान्ति की मशाल सदैव
जलती रहनी चाहिए
मेरे हाथ में ना सही
तेरे हाथ में जलती रहनी चाहिए
एक नदी निकलनी चाहिए……
जय श्री विश्वकर्मा जी री सा
कवि: दलीचंद जांगिड सातारा महाराष्ट्र
मो: 9421215933
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