डॉ. ज्योति माने की कलम से जानिये: अक्षोभ्य पुरुष की महाशक्ति तारा
अग्नि का एक नाम हिरन्यरेता है, सौरमंडल हिरण्यरेत (अग्नि) से अविष्ट है, इसीलिए उसे हिरण्यमय कहा जाता है। अग्नि मंडल के केंद्र में सौरब्रह्म तत्व प्रतिष्ठित है। इसीलिए सौर ब्रह्म को हिरण्यगर्भ कहा जाता है।
मुंबई/जीजेडी न्यूज: मां तारा दूसरी महाविद्या है, प्रथम महाविद्या मांकाली का अधिपत्य रात 12 बजे से सूर्योदय तक रहता है। इसके बाद तारा साम्राज्य होता है। तारा महाविद्या का रहस्य बोध कराने वाली हिरण्यगर्भ विद्या है। इस विद्या के अनुसार वेदों ने संपूर्ण विश्व का आधार सूर्य है। अग्नि का एक नाम हिरन्यरेता है, सौरमंडल हिरण्यरेत (अग्नि) से अविष्ट है, इसीलिए उसे हिरण्यमय कहा जाता है। अग्नि मंडल के केंद्र में सौरब्रह्म तत्व प्रतिष्ठित है। इसीलिए सौर ब्रह्म को हिरण्यगर्भ कहा जाता है।
विश्व केंद्र में प्रतिष्ठित हिरण्यगर्भ भू: भुर्व: स्व: त्रिलौकी का निर्माण करता है। त्रिलोकी के अधिष्ठाता स्वयंभू परमेष्ठि रूप अम तारुष्ठि का और पृथ्वी,चंद्र रूपमर्त्य सृष्टि का विभाजन एवं संचालन करता है। हिरण्यगर्भ का प्रादुर्भाव और केंद्र में होता है। इसका वर्णन यजुर्वेद इस प्रकार करता है।
हिरण्यगर्भ: समवृतताग्रे भुत्स्य जात:
पति आसीत।
सृदाधार पृथिविम धामुतेमाम
कस्मैदेवाय हविषाविधेम ।।
जिस प्रकार विश्वातीत कालपुरुष की महाशक्ति महाकाली है। उसी प्रकार सौरमंडल में प्रतिष्ठित हिरण्यगर्भ की महाशक्ति तारा है। शतपथ ब्राह्मण ( 2।1।2।18) का कथन है कि जिस तरह घोर अंधकार दीपक में बिंब के समान तारा चमकता है। उसी प्रकार महात्मा के केंद्र से प्रार्दुभूत सूर्य नक्षत्र चमकता है, वैदिक सिद्धांत के अनुसार सूर्य स्थिर रहता है, समस्त ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। यह सूर्य बृहती छंद नाम से प्रसिद्ध विश्व कदत्त के ठीक मध्य में क्षोभरहित होकर स्थिर रूप से तप रहा है। इसीलिए इसे तंत्र शास्त्र में अक्षोभ्य कहा गया है। वेदों में सूर्य को पहले रूद्र कहा गया है, और ‘शिव‘ तथा ‘अघोर‘ रूप से रुद्र के दो शरीर बनाए गए हैं। आपोम्यपर्मेष्ठ समुद्र में घर्षण होने से अग्नि परमाणु उत्पन्न हुआ, तदंतर ‘श्वेतवाराह‘ नाम के प्रजापत्य वायु द्वारा इस केंद्र से संघात हुआ। निरंतर संघात होने से अन्य परमाणु पिंड रूप में परिणित होकर सहसा जल उठे। जो पिंड प्रज्वलित हुआ वही सूर्य कहलाया। प्रज्वलित रुद्राग्नि मै अन्नभक्षण करने की इच्छा प्रकट हुई, अन्नहुति होने से पहले वह सूर्य महा उग्र था। और उस महाउग्र सूर्य की शक्ति को उग्रतारा कहां गया।
रुद्राग्नि सूर्य में जब अन्न की आहुत्ति होती है तो वह शांत रहता है और अन्नआहुत्ति न मिलने से वही सूर्य संसार का नाश कर देता है।
सूर्य के इस उग्रवाद और उसकी उग्र शक्ति का निरूपम करते हुए ‘शाक्त प्रमोद तारा तंत्र‘ मैं रहस्योद्घाटन किया गया है। यहां पर तारा विद्या के स्वरूप तत्व का चिंतन किया गया है। दूसरी दस महाविद्या मे तारा की चार भुजाएं और चारों में सांप लिपटे हुए हैं।
वह देवी शव के हृदय पर सवार होकर अट्टहास कर रही है। उसके हाथ में खप्पर है, वह नीलग्रीव है। पिंडल है, और उसके नील विशाल जटा जुटों में नाग लिपटें हुए हैं।
1) उग्रतारा शक्ति प्रलय काल में विशाल गैसों से संसार का संहार करती है। प्रलय काल में वायु दूषित होकर विषाक्त बन जाता है। इस विषैलपन का प्रतीक सांप है।
2) उग्रतारा की सत्ता विश्व केंद्र में रहती है। प्रलय हो जाने पर जब विश्व श्मशान बन जाता है। शवरूप हो जाता है, तब उग्रतारा इसी शव केंद्र पर आरूढ़ रहती है, यह शव के रुदय पर सवार होने का प्रतीक है।
3) रुद्राग्नि अन्नहुति न मिलने से प्रलय तीव्र रूप धारण कर लेता है तो वह सांय सांय शब्द करने लगता है
यही तारा का अट्टाहास है।
4) प्रलय काल में पृथ्वी और चंद्र तथा उन में रहने वाले सभी प्राणियों का रस ( श्री) उग्र सौर ताप में सूख जाता है और उसका रस भाग उग्रतारा पी जाती है, रस प्राणियों का श्री भाग है। यह मुख्यता शिर के कपाल में रहता है। श्री (रस) भाग के रहने के कारण मस्तक शिर कहलाता है। ( शतपत.6।1।1) इसी को आधार बनाकर उग्रतारा सबका रसपान करती है सिर की खोपड़ी का प्रतीत खप्पर है।
5) यजुर्वेद (16।7) नीलग्रीववोवि लोहित: कह कर सूर्य को नीलग्रीव कहा है, वह पिंडलवरन है। ऊग्र सूर्य की शक्तिदाता भी नीलग्रीव है पिंडल है। सूर्य की रश्मिया तारा की जटाएं है। हर शौररश्मि प्रलय के भीषण काल में जहरीली गैसों से भरी रहती है। इसी का प्रतिक नीलविशाल पिंडल जटायु टैंक नागेयुर्ता है। इसी तरह मां का विशाल रूप देखा अब हम अगले अध्याय मै मां षोडशी का तीसरे रूप के बारे मैं चर्चा करेंगे।
🔱 जय मां दुर्गे 🔱
यह पढ़ें डॉ. ज्योति माने की कलम से जानिये: महाकाल पुरुष की शक्ति महाकाली का गूढ़ ज्ञान
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