75वां वार्षिक निरंकारी संत समागम: आध्यात्मिकता मानवता को सुंदर रूप प्रदान करती है: सत्गुरु माता सुदीक्षा जी महाराज
सत्गुरु माता जी ने कहा कि हृदय में जब इस परमपिता परमात्मा का निवास हो जाता है तब अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है और मन में व्याप्त दुर्भावनाओं का अंत होता है।
- वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को प्रदर्शित करता 75वां निरंकारी संत समागम
नरेंद्र शर्मा परवाना / अजीत कुमार।
गन्नौर/सोनीपत: निरंकारी सत्गुरु माता सुदीक्षा जी महाराज ने कहा कि आध्यात्मिकता मनुष्य की आंतरिक अवस्था में परिवर्तन लाकर मानवता को सुंदर रूप प्रदान करती है। इसका साकार स्वरुप 75वें वार्षिक संत समागम में दिखाई दे रहा है। निरंकारी आध्यात्मिक स्थल, समालखा-गन्नौर के मध्य हल्दाना बोर्डर पर (हरियाणा) स्थित विशाल मैदानों में 16 से 20 नवंबर दिव्य समागम में विश्वभर से लाखों श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए यह विचासर व्यक्त किये।
सत्गुरु माता जी ने कहा कि हृदय में जब इस परमपिता परमात्मा का निवास हो जाता है तब अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है और मन में व्याप्त दुर्भावनाओं का अंत होता है। परमात्मा शाश्वत एवं सर्वत्र समाया हुआ है जिसकी दिव्य ज्योति निरंतर प्रज्ज्वलित होती रहती है। जब ब्रह्मज्ञानी भक्त अपने मन को परमात्मा के साथ इकमिक कर लेता है तब उस पर दुनियावी बातों का कोई प्रभाव नहीं पडता। हर परिस्थिति में संतुलित भाव से व्यवहार करता है, वही उसका स्वभाव बन जाता है।
सत्गुरु माता जी ने कहा कि आध्यात्मिकता के मार्ग पर अग्रसर होते हुए हमारा सामाजिक स्तर, जाति, वर्ण अथवा धार्मिक आस्था इत्यादि कभी भी बाधित नहीं बनतें क्योंकि संत अपने कर्म एवं व्यवहार द्वारा सभी को सहज रुप में स्वीकार करने का भाव रखते हैं। परमात्मा के साथ हमारा वास्तविक सम्बन्ध रुहानी है जिसका बोध होने पर जीवन सुखमय एवं आनंदित बनता है।
आध्यात्मिकता में कर्ता भाव नहीं समर्पण होता है: निरंकारी राजपिता रमित जी
इसके पूर्व सत्संग समारोह में निरंकारी राजपिता रमित जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि अच्छे कर्म, मानवता और नैतिकता इत्यादि की बातें तो निरंतर होती ही रहती है परन्तु इसके साथ आध्यात्मिकता को जोड़ने की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि आध्यात्मिकता में कर्ता भाव, पश्चाताप अथवा भय का भाव नहीं होता अपितु ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना होती है। सच्चा भक्त ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करके अपने वास्तविक स्वरूप एवं स्वभाव को प्राप्त कर लेता है। इस आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से उसके अंदर मानवता के दिव्य गुण स्वतः ही समाहित हो जाते हैं जो उसके कर्म एवं व्यवहार में स्वाभाविक रूप से झलकने लगते हैं। आज यह मानवता का मिशन परोपकार की इन्ही भावनाओं को सारे संसार तक पहुंचा रहा है।
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